नैनीताल की अलग-अलग मूड में ये सारी तस्वीरें मैंने अपने कैमरे से कैद की हैं। शायद आप लोगों को भी अच्छी लगें।
सुबह के समय नैनीताल
गर्मियों की दोपहर में नैनीताल
कोहरे में घिरा नैनीताल
बारिश के बाद नैनीताल
शाम के समय नैनीताल
चांदनी रात में नैनीताल
Monday, June 29, 2009
Monday, June 22, 2009
मेरी कौसानी यात्रा - 2
सूर्योदय के समय कौसानी सूर्योदय के समय कौसानी
सुबह अच्छी खासी ठंडी थी इसलिये उठने का मन नहीं हुआ पर थोड़ा आलस करने के बाद हम लोग उठ ही गये। सूर्योदय के समय कौसानी का नज़ारा कुछ अलग ही दिखाई दे रहा था। हम थोड़ा आगे तक टहलने निकल गये। वापस आकर कॉफी पी, नाश्ता किया और आज के दिन की प्लानिंग की। क्योंकि हमारे पास सिर्फ आज का ही दिन था इसलिये हम ज्यादा से ज्यादा कौसानी देखना चाहते थे। तैयार होते हुए करीब 11 बज गये। रैस्ट हाउस वालों हमें ने बताया कि - नजदीक में तो आप अनासक्ति आश्रम, सुमित्रानन्दन पंत म्यूजियम जा सकते हो और थोड़ा दूरी पर रुद्रधारी मंदिर जा सकते हो लेकिन वहां जाने के लिये आपको काफी पैदल जाना पड़ेगा। पैदल चलने के नाम पर इस मंदिर के लिये हम लोगों की उत्सुकता बढ़ गयी। उसके बाद हम लोग रास्ते की दुकान पर चाय पीते हुए पैदल ही कौसानी बाजार आ गये। इस समय हिमालय का नजारा देखने लायक था। कौसानी से हिमालय
अनासक्ति आश्रम कौसानी बाजार में ही है। यह वह जगह है जहां सन् 1929 में गांधी जी भ्रमण पर आये थे और इसी स्थान पर उन्होंने अनासक्ति योग लिखा था। इस आश्रम को बहुत अच्छे ढंग से व्यवस्थित किया गया है। यहां गांधी जी से संबंधित सभी चीजों के संकलन किया गया है। इस आश्रम में एक प्रार्थना भवन भी है। अनासक्ति आश्रम में जाना काफी शुकुनभरा अनुभव रहा। अनासक्ति आश्रम अनासक्ति आश्रम के भीतर का नज़ारा अनासक्ति आश्रम का प्रार्थना भवन
यहां से हम लोग सुमित्रानन्दन पंत जो कि हिन्दी साहित्य के महान कवि रहे हैं के पैत्रक निवास को देखने गये। जिसे अब सुमित्रानन्दन पंत म्यूजियम बना दिया गया है। यहां इनसे संबंधित चीजों का संकलन किया है। पर इस म्यूजियम की दशा हमें उतनी ज्यादा अच्छी नहीं लगी।
सुमित्रानन्दन पंत म्यूजियम
इस स्थान में कुछ मंदिर वगैरह भी हैं। यहीं हमने रुद्रधारी मंदिर जाने के लिये टैक्सी की बात की। टैक्सी वाले ने बताया - मंदिर जाने के लिये काफी पैदल जाना पड़ता है इसलिये गाइड को साथ में ले जाना ही ठीक रहेगा क्योंकि जंगल में भटकने का भी खतरा रहता है। पहले तो हमें गाइड ले जाने की बात कुछ समझ नहीं आयी पर फिर लगा कि गाइड को ले ही जाते हैं। शायद 1-2 घंटे में हम रुद्रधारी मंदिर को पैदल जाने वाले रास्ते में पहुंच चुके थे। इसके आगे का रास्ता पैदल चलना था। यह चीड़ का जंगल था। काफी घना था और काफी उतार चढ़ाव वाला रास्ता था। इस रास्ते को देखते हुए हमें लगा कि गांव वालों ने हमें सही राय दी थी कि गाइड को साथ ले लें। यहां पर ट्रेकिंग करने में बड़ा मजा आया। इस जंगल के बीच से एक पतली सी नदी भी बह रही थी जो आजकल शायद पानी कम होने के कारण सूख सी गयी थी।
रुद्रधारी के पास बहने वाला झरना
हम लोग करीब 3 घंटे चलने के बाद रुद्रधारी मंदिर पहुंचे। जब यहां पहुंचे तो हमारी पूरी थकावट एक पल में ही छू हो गयी। इसका कारण मंदिर नहीं था बल्कि मंदिर के पास बहने वाला झरना था जो कि काफी ऊँचा था और उसमें से काफी पानी नीचे गिर रहा था। शायद यही पानी उस नदी में भी जा रहा था। जो भी हो पर हम लोग मंदिर में जाने से पहले काफी देर तक झरने में खेलते रहे। हमारे गाइड ने हमें झरने में ज्यादा आगे जाने से मना कर दिया सो हम पानी में पैर डाल के बैठे रहे। उसके बाद मंदिर में अंदर गये। यहां शिवलिंग हैं। इस मंदिर के बारे में ज्यादा तो हमें कुछ पता नहीं चला पर हां गाइड ने बताया कि यहां कोई बाबाजी रहते हैं जो आजकल कहीं बाहर गये हुए हैं। मंदिर के दर्शन करके हम लोग वापस झरने के पास आये और थोड़ी देर फिर पानी में खेलते रहने के बाद वापस लौट लिये। रुद्रधारी का मंदिर
जंगल में हमें औरतें घास काट के लाती हुई दिखी। मेरे मुंह से अचानक निकल पड़ा कि - गांवों को तो औरतों ने ही जिंदा रखा है अगर ये औरतें नहीं होती तो गांव कब के तबाह हो जाते। महिला सशक्तिकरण का असली उदाहरण तो गांव की ये औरतें हैं जो इतना कठिन जीवन जी रही हैं और इस जीवटता के साथ रात-दिन काम करती हैं। मेरी ये बात गाडड सुन ली। उसने मुझसे कहा - हां ! यहां के आदमी तो किसी काम के अब रहे नहीं। आधे से ज्यादा लोग तो शराब के पीछे बर्बाद हो गये। कुछ ही ऐसे हैं जो मेहनत से काम करते हैं और जो जरा पड़े-लिखे और अच्छे थे वे शहरों में नौकरी के लिये चले गये। इसलिये घर-गांवों की पूरी जिम्मेदारी औरतों के उपर ही है। यही सब कुछ संभालती हैं। हमें एक बात तो महसूस होने लगी थी कि हमारा गाइड निहायत ही शरीफ और शांत स्वभाव का था। उसने वापसी के समय हमें एक पहाड़ी लोक गीत भी सुनाया पर बहुत ही शर्माते-शर्माते।
जिस सड़क से हम वापस आ रहे थे वो सड़क थोड़ा और आगे को जा रही थी। हमने गाइड से पूछा - आगे क्या है तो उसने बताया - एक गांव है और कुछ नहीं। हम लोगों ने गाइड से वहां ले जाने के लिये कहा और वो हमें बिना किसी ना-नुकेर के ले गया। पर हुआ कुछ यूं कि एक गाय हमारी गाड़ी को देख कर इस कदर डर गयी कि वो सड़क में यहां-वहां भागने लगी और फिसल भी रही थी। उस गाय कि हड़बड़ाहट देखकर हमने वापस आ जाना ही ठीक समझा क्योंकि हम नहीं चाहते थी कि वो बुरी तरह गिर के अपने हाथ-पैर तुड़वाये। वैसे इस तरह का नजारा अकसर ही उन गांवों में देखने को मिल जाता है जहां आज भी गाड़ियों का चलन ज्यादा नहीं है।
एक अच्छा दिन बिता के हम लोग कौसानी बाजार वापस आ गये। बाजार में दाल, चावल खाये और पैदल ही रैस्ट हाउस की तरफ बढ़ गये और हां रास्ते में चाय पीना इस समय भी नहीं भूले। करीब 4 बजे हम लोग रैस्ट हाउस में थे। आज का दिन हमारे लिये काफी अच्छा रहा। लेकिन समय की कमी के कारण हम कुछ जगहों पर नहीं जा पाये। शाम के समय फिर बाजार की ओर टहलने आ गये। पर आज काफी देर हो जाने के कारण चाय वाले की दुकान से चाय पीकर ही हम वापस हो लिये। रैस्ट हाउस में आकर खाना खाया और सो गये।
आज की सुबह थोड़ी बादलों भरी थी। हम लोगों का कौसानी में कुछ और दिन रुकने का मन हो रहा था पर वापस आने की मजबूरी थी सो यह सोच कर वापसी की तैयारी करने लगे की फिर कभी यहां आये तो कुछ ज्यादा समय के लिये ही आयेंगे।
समाप्त
सुबह अच्छी खासी ठंडी थी इसलिये उठने का मन नहीं हुआ पर थोड़ा आलस करने के बाद हम लोग उठ ही गये। सूर्योदय के समय कौसानी का नज़ारा कुछ अलग ही दिखाई दे रहा था। हम थोड़ा आगे तक टहलने निकल गये। वापस आकर कॉफी पी, नाश्ता किया और आज के दिन की प्लानिंग की। क्योंकि हमारे पास सिर्फ आज का ही दिन था इसलिये हम ज्यादा से ज्यादा कौसानी देखना चाहते थे। तैयार होते हुए करीब 11 बज गये। रैस्ट हाउस वालों हमें ने बताया कि - नजदीक में तो आप अनासक्ति आश्रम, सुमित्रानन्दन पंत म्यूजियम जा सकते हो और थोड़ा दूरी पर रुद्रधारी मंदिर जा सकते हो लेकिन वहां जाने के लिये आपको काफी पैदल जाना पड़ेगा। पैदल चलने के नाम पर इस मंदिर के लिये हम लोगों की उत्सुकता बढ़ गयी। उसके बाद हम लोग रास्ते की दुकान पर चाय पीते हुए पैदल ही कौसानी बाजार आ गये। इस समय हिमालय का नजारा देखने लायक था। कौसानी से हिमालय
अनासक्ति आश्रम कौसानी बाजार में ही है। यह वह जगह है जहां सन् 1929 में गांधी जी भ्रमण पर आये थे और इसी स्थान पर उन्होंने अनासक्ति योग लिखा था। इस आश्रम को बहुत अच्छे ढंग से व्यवस्थित किया गया है। यहां गांधी जी से संबंधित सभी चीजों के संकलन किया गया है। इस आश्रम में एक प्रार्थना भवन भी है। अनासक्ति आश्रम में जाना काफी शुकुनभरा अनुभव रहा। अनासक्ति आश्रम अनासक्ति आश्रम के भीतर का नज़ारा अनासक्ति आश्रम का प्रार्थना भवन
यहां से हम लोग सुमित्रानन्दन पंत जो कि हिन्दी साहित्य के महान कवि रहे हैं के पैत्रक निवास को देखने गये। जिसे अब सुमित्रानन्दन पंत म्यूजियम बना दिया गया है। यहां इनसे संबंधित चीजों का संकलन किया है। पर इस म्यूजियम की दशा हमें उतनी ज्यादा अच्छी नहीं लगी।
सुमित्रानन्दन पंत म्यूजियम
इस स्थान में कुछ मंदिर वगैरह भी हैं। यहीं हमने रुद्रधारी मंदिर जाने के लिये टैक्सी की बात की। टैक्सी वाले ने बताया - मंदिर जाने के लिये काफी पैदल जाना पड़ता है इसलिये गाइड को साथ में ले जाना ही ठीक रहेगा क्योंकि जंगल में भटकने का भी खतरा रहता है। पहले तो हमें गाइड ले जाने की बात कुछ समझ नहीं आयी पर फिर लगा कि गाइड को ले ही जाते हैं। शायद 1-2 घंटे में हम रुद्रधारी मंदिर को पैदल जाने वाले रास्ते में पहुंच चुके थे। इसके आगे का रास्ता पैदल चलना था। यह चीड़ का जंगल था। काफी घना था और काफी उतार चढ़ाव वाला रास्ता था। इस रास्ते को देखते हुए हमें लगा कि गांव वालों ने हमें सही राय दी थी कि गाइड को साथ ले लें। यहां पर ट्रेकिंग करने में बड़ा मजा आया। इस जंगल के बीच से एक पतली सी नदी भी बह रही थी जो आजकल शायद पानी कम होने के कारण सूख सी गयी थी।
रुद्रधारी के पास बहने वाला झरना
हम लोग करीब 3 घंटे चलने के बाद रुद्रधारी मंदिर पहुंचे। जब यहां पहुंचे तो हमारी पूरी थकावट एक पल में ही छू हो गयी। इसका कारण मंदिर नहीं था बल्कि मंदिर के पास बहने वाला झरना था जो कि काफी ऊँचा था और उसमें से काफी पानी नीचे गिर रहा था। शायद यही पानी उस नदी में भी जा रहा था। जो भी हो पर हम लोग मंदिर में जाने से पहले काफी देर तक झरने में खेलते रहे। हमारे गाइड ने हमें झरने में ज्यादा आगे जाने से मना कर दिया सो हम पानी में पैर डाल के बैठे रहे। उसके बाद मंदिर में अंदर गये। यहां शिवलिंग हैं। इस मंदिर के बारे में ज्यादा तो हमें कुछ पता नहीं चला पर हां गाइड ने बताया कि यहां कोई बाबाजी रहते हैं जो आजकल कहीं बाहर गये हुए हैं। मंदिर के दर्शन करके हम लोग वापस झरने के पास आये और थोड़ी देर फिर पानी में खेलते रहने के बाद वापस लौट लिये। रुद्रधारी का मंदिर
जंगल में हमें औरतें घास काट के लाती हुई दिखी। मेरे मुंह से अचानक निकल पड़ा कि - गांवों को तो औरतों ने ही जिंदा रखा है अगर ये औरतें नहीं होती तो गांव कब के तबाह हो जाते। महिला सशक्तिकरण का असली उदाहरण तो गांव की ये औरतें हैं जो इतना कठिन जीवन जी रही हैं और इस जीवटता के साथ रात-दिन काम करती हैं। मेरी ये बात गाडड सुन ली। उसने मुझसे कहा - हां ! यहां के आदमी तो किसी काम के अब रहे नहीं। आधे से ज्यादा लोग तो शराब के पीछे बर्बाद हो गये। कुछ ही ऐसे हैं जो मेहनत से काम करते हैं और जो जरा पड़े-लिखे और अच्छे थे वे शहरों में नौकरी के लिये चले गये। इसलिये घर-गांवों की पूरी जिम्मेदारी औरतों के उपर ही है। यही सब कुछ संभालती हैं। हमें एक बात तो महसूस होने लगी थी कि हमारा गाइड निहायत ही शरीफ और शांत स्वभाव का था। उसने वापसी के समय हमें एक पहाड़ी लोक गीत भी सुनाया पर बहुत ही शर्माते-शर्माते।
जिस सड़क से हम वापस आ रहे थे वो सड़क थोड़ा और आगे को जा रही थी। हमने गाइड से पूछा - आगे क्या है तो उसने बताया - एक गांव है और कुछ नहीं। हम लोगों ने गाइड से वहां ले जाने के लिये कहा और वो हमें बिना किसी ना-नुकेर के ले गया। पर हुआ कुछ यूं कि एक गाय हमारी गाड़ी को देख कर इस कदर डर गयी कि वो सड़क में यहां-वहां भागने लगी और फिसल भी रही थी। उस गाय कि हड़बड़ाहट देखकर हमने वापस आ जाना ही ठीक समझा क्योंकि हम नहीं चाहते थी कि वो बुरी तरह गिर के अपने हाथ-पैर तुड़वाये। वैसे इस तरह का नजारा अकसर ही उन गांवों में देखने को मिल जाता है जहां आज भी गाड़ियों का चलन ज्यादा नहीं है।
एक अच्छा दिन बिता के हम लोग कौसानी बाजार वापस आ गये। बाजार में दाल, चावल खाये और पैदल ही रैस्ट हाउस की तरफ बढ़ गये और हां रास्ते में चाय पीना इस समय भी नहीं भूले। करीब 4 बजे हम लोग रैस्ट हाउस में थे। आज का दिन हमारे लिये काफी अच्छा रहा। लेकिन समय की कमी के कारण हम कुछ जगहों पर नहीं जा पाये। शाम के समय फिर बाजार की ओर टहलने आ गये। पर आज काफी देर हो जाने के कारण चाय वाले की दुकान से चाय पीकर ही हम वापस हो लिये। रैस्ट हाउस में आकर खाना खाया और सो गये।
आज की सुबह थोड़ी बादलों भरी थी। हम लोगों का कौसानी में कुछ और दिन रुकने का मन हो रहा था पर वापस आने की मजबूरी थी सो यह सोच कर वापसी की तैयारी करने लगे की फिर कभी यहां आये तो कुछ ज्यादा समय के लिये ही आयेंगे।
समाप्त
Thursday, June 18, 2009
मेरी कौसानी यात्रा - 1
मेरी यह कौसानी यात्रा सन् 2006 की है। इस यात्रा की प्लानिंग भी मैंने और मेरे दोस्तों ने अचानक ही बनायी। हुआ कुछ यूं था कि शनिवार और इतवार की छुट्टी थी इसलिये हमने सोचा की दो दिन के लिये नजदीक की किसी जगह जाया जा सकता है और कौसानी तय हो गया। बस फिर क्या था सीधे कौसानी में कुमाऊँ मंडल विकास निगम के होटल में बुकिंग भी करवा ली।
वो शायद अक्टूबर या नवम्बर का महीना रहा होगा हम लोग सुबह 6.30 बजे वाली बस से कौसानी के लिये निकल गये। सबसे अच्छा यह रहा कि हमें सीधा कौसानी तक की बस मिल गयी। वो भी आगे की सीटें। हमने अपने टिकट ले लिये और आपस में बात करने लगे। कुछ देर बाद जब बस भरी तब चलने के लिये तैयार हो गई और हम भवाली की तरफ निकल गये। करीब 25-30 मिनट में हम भवाली पर थे। यहां से बस अल्मोड़ा के लिये निकली। अल्मोड़ा तक का रास्ता तो हम लोगों के लिये बिल्कुल जाना पहचाना रास्ता है। पूरा रास्ता कोसी नदी के साथ-साथ ही चलता है और बीच में कैंची मंदिर, काकड़ीघाट और सोमवार गिरी महाराज का आश्रम पड़ता है। लेकिन अल्मोड़ा से आगे का रास्ता हम लोगों के लिये नया था। रास्ते में काफी सारे गांव पड़े जिनके नाम अब तो याद नहीं रहे पर हां इतना जरूर है कि काफी सुंदर लग रहे थे। चलती गाड़ी से बाहर दौड़ते-भागते खेतों और गांवों को देखने में बहुत अच्छा लगता है एक के बाद एक नयी-नयी जगह आती हैं और चली जाती हैं। इस रास्ते में सोमेश्वर भी पड़ता है जो कि एक बहुत ही खुबसूरत जगह है।
बस पहाड़ी सड़कों में हौले-हौले आगे बढ़ रही थी और बीच-बीच में लगातार यात्री चढ़ और उतर रहे थे। ज्यादातर यात्री बीच के स्टेशनों में उतर रहे थे और बीच के स्टेशनों से ही चढ़ भी रहे थे। जो शायद उनकी रोजमर्रा कि जिंदगी का एक अहम हिस्सा था। पूरे रास्ते में बस सिर्फ एक ही जगह कुछ देर के लिये रुकी जहां लोगों ने चाय वगैरह पी। आजकल यहां मौसम बहुत अच्छा था। इस समय न तो गरम ही था और न ठंडा। कुछ समय में बस अपनी मंजिल की तरफ बढ़ गयी और फिर से छोटे-छोटे गांव, खेत खलिहान हमारे रास्ते में आते रहे।
दोपहर करीब 12 बजे हम लोग कौसानी में थे। हम लोगों के सामने कौसानी का छोटा सा बाजार था। यहीं एक दुकान में जाकर हमने कु.मं.वि.नि. के रैस्ट हाउस का पता पूछा। दुकानदार ने बताया यहां से तो वहां सिर्फ टैक्सी ही जाती है जो 50 रु. लेती है। हमने टैक्सी ली और रैस्ट हाउस की तरफ चले गये। करीब 20-25 मिनट में हम लोग रैस्ट हाउस पहुंच गये। हमारी बुकिंग पहले से ही थी सो उन्होंने हमें हमारे कमरे तक पहुंचा दिया। हमारे कमरे के सामने ही हिमालय का नजारा था पर इस समय हिमालय के ऊपर बादल आ गये थे इसलिये हमें हिमालय नहीं दिख पाया। हमने अपने लिये कॉफी यहीं मंगायी और बाहर से ही बैठ के पी। थोड़ा-थोड़ा भूख भी सताने लगी थी सो खाने के लिये भी ऑर्डर दे दिया। थके होने के कारण हमने तय किया कि पहले कुछ देर आराम करेंगे और फिर कहीं टहलने निकलेंगे।
करीब 4.30 बजे हम लोग टहलने के लिये निकले। इस समय कौसानी का नजरा बिल्कुल अलग ही था। रैस्ट हाउस वालों ने बताया कि यहां ऐसी तो कोई जगह नहीं है जहां आप इस समय जा सके। बस बाजार तक जा सकते हैं जहां से आप उस समय टैक्सी करके आये थे। आप लोग सड़क ही सड़क जाना कहीं भी दांये-बांये नहीं होना और साथ ही उन्होंने हमें यह भी कहा कि यहां एकदम अंधेरा हो जाता है और रात को रास्ता बिल्कुल सुनसान होता है जिस कारण जंगली जानवरों का खतरा है। इसलिये कोशिश करना कि समय से वापस आ जाओ।
यहां हमें काफी विदेशी सैलानी नजर आये। इस समय हमें महसूस हुआ हुआ कि यह रास्ता इतना लम्बा भी नहीं है शायद 2 किमी. ही होगा और सड़क बिल्कुल अच्छी खासी है। इस सड़क में कुछ और होटल भी हैं। कुछ देर में हम बाजार पहुंचे। सूर्यास्त का ही समय रहा होगा और बाजार लगभग बंद हो चुके थे। कहीं कोई इक्का-दुक्का दुकान ही खुली हुई थी और कहीं कुछ शराबी गिरते पड़ते दिखे।
हमें रैस्ट हाउस वालों की बात याद आ गयी सो वापस लौट गये। वापस लौटते हुए एक छोटा सा पहाड़ी नुमा रैस्टोरेंट हमारी नजरों में आ गया। जाते समय तो हम इसे नहीं देख पाये पर इस समय इसमें नजर पड़ गयी। अब ठंडी भी कुछ ज्यादा ही होने लगी थी। जैकेट पहने होने के बाद भी कपकपी लग रही थी इसलिये हमने वहां चाय पीने की सोची और साथ ही उसके यहां जल रही लकड़ी की आग सेकने का मन भी हो आया।
रैस्टोरेंट वाले से चाय के लिये कहा तो उसने बड़े उत्साह से कहा - आप बैठिये मैं अभी अदरक वाली चाय बना कर लाता हूं। उसके चाय बनाने तक हम लोग सगड़ में जल रही आग सेकने बैठ गये। शहरों में तो सिर्फ हीटर की आग ही होती है इसलिये लकड़ी की आग सेकने का मजा हममें से कोई भी खोना नहीं चाहता था। आग के पास कुछ और भी ग्रामीण बैठे हुए थे जिन्होंने हमसे मुखतिब होते हुए पूछा - आप लोग कहीं बाहर से आये हो ? हमने कहा - नहीं। हम लोग भी पहाड़ी ही हैं बस कौसानी घूमने आये हैं। उन्होंने कहा - अब तो यहां ज्यादा बाहर के लोग ही घूमने आते हैं जिनमें ज्यादातर बंगाली टूरिस्ट होते हैं। हमने कहा - हमें तो यहां विदेशी भी खूब दिख रहे हैं। उन्होंने कहा - कहां के विदेशी ? अब तो ये भी यहीं के पहाड़ी हो गये हैं। इनमें से कई विदेशी ऐसे हैं जो अब यहीं के आसपास के गांवों में बस गये हैं और उन्होंने यहीं के रहन सहन को अपना लिया है। ये लोग हिन्दी तो रही हिन्दी कुमाउंनी भाषा भी फर्राटे से बोलते हैं।
इन्हीं सब बातों के बीच चाय आ गयी। चाय की पहली चुस्की ने ही हमें पूरा तरोताजा कर दिया और उसी समय ये बात तय हो गयी कि जब तक यहां हैं चाय तो इसी दुकान में पियेंगे। उन लोगों के साथ चाय पीते-पीते कुछ और बातें की फिर हम लोग वापस आ गये। रात बिल्कुल गहरा गयी थी अचानक ही हमारी नजर आसमान की ओर पड़ी। आसमान बिल्कुल नीला था और उसमें तारे हीरों की तरह जगमगा रहे थे। इतना स्वच्छ और निर्मल आसमान अब शायद गांवों में ही कहीं दिखता होगा।
हम लोग अपनी बातों में इतने मशगूल थे कि पता ही नहीं चला कि हम कब रास्ता भटक गये और दूसरे रास्ते पर निकल गये। जब इस रास्ते में काफी आगे बढ़ गये तो हमें महसूस हुआ कि हम उंचाई की तरफ जा रहे हैं जबकि हमारा रास्ता बिल्कुल सीधा था। उस समय हमारे समझ में कुछ भी नहीं आया रास्ता एकदम सुनसान था। कहीं कोई हलचल नहीं थी। इस समय तो हम लोग थोड़ा घबरा गये थे क्योंकि ये भी समझ नहीं आ रहा था आखिर रास्ता पूछें भी तो किस से। उस पर से अपने मोबाइल भी रैस्ट हाउस में ही छोड़ गये थे। हम लोगों ने तय किया कि जिस रास्ते से आये हैं उसी रास्ते से वापस जाते हैं और वहीं-कहीं किसी मकान या होटल वालों से कुछ पूछ लेंगे। जब हम वापस लौटे तो हमें अपनी गलती पता चल गयी। असल में हुआ यूं कि एक जगह रास्ता दो सड़कों में कट गया था। हमें सीधे रास्ते पर जाना था लेकिन हम दूसरे रास्ते में निकल गये। सही रास्ता पाकर हमारी जान में जान आयी। उसके थोड़ी देर बाद हम लोग रैस्ट हाउस आ गये। रात के समय तो यहां बिल्कुल सन्नाटा सा पसर गया था। हम लोगों ने रात का खाना खाया और फिर कुछ देर यहां-वहां की बातें की और सो गये।
जारी...
वो शायद अक्टूबर या नवम्बर का महीना रहा होगा हम लोग सुबह 6.30 बजे वाली बस से कौसानी के लिये निकल गये। सबसे अच्छा यह रहा कि हमें सीधा कौसानी तक की बस मिल गयी। वो भी आगे की सीटें। हमने अपने टिकट ले लिये और आपस में बात करने लगे। कुछ देर बाद जब बस भरी तब चलने के लिये तैयार हो गई और हम भवाली की तरफ निकल गये। करीब 25-30 मिनट में हम भवाली पर थे। यहां से बस अल्मोड़ा के लिये निकली। अल्मोड़ा तक का रास्ता तो हम लोगों के लिये बिल्कुल जाना पहचाना रास्ता है। पूरा रास्ता कोसी नदी के साथ-साथ ही चलता है और बीच में कैंची मंदिर, काकड़ीघाट और सोमवार गिरी महाराज का आश्रम पड़ता है। लेकिन अल्मोड़ा से आगे का रास्ता हम लोगों के लिये नया था। रास्ते में काफी सारे गांव पड़े जिनके नाम अब तो याद नहीं रहे पर हां इतना जरूर है कि काफी सुंदर लग रहे थे। चलती गाड़ी से बाहर दौड़ते-भागते खेतों और गांवों को देखने में बहुत अच्छा लगता है एक के बाद एक नयी-नयी जगह आती हैं और चली जाती हैं। इस रास्ते में सोमेश्वर भी पड़ता है जो कि एक बहुत ही खुबसूरत जगह है।
बस पहाड़ी सड़कों में हौले-हौले आगे बढ़ रही थी और बीच-बीच में लगातार यात्री चढ़ और उतर रहे थे। ज्यादातर यात्री बीच के स्टेशनों में उतर रहे थे और बीच के स्टेशनों से ही चढ़ भी रहे थे। जो शायद उनकी रोजमर्रा कि जिंदगी का एक अहम हिस्सा था। पूरे रास्ते में बस सिर्फ एक ही जगह कुछ देर के लिये रुकी जहां लोगों ने चाय वगैरह पी। आजकल यहां मौसम बहुत अच्छा था। इस समय न तो गरम ही था और न ठंडा। कुछ समय में बस अपनी मंजिल की तरफ बढ़ गयी और फिर से छोटे-छोटे गांव, खेत खलिहान हमारे रास्ते में आते रहे।
दोपहर करीब 12 बजे हम लोग कौसानी में थे। हम लोगों के सामने कौसानी का छोटा सा बाजार था। यहीं एक दुकान में जाकर हमने कु.मं.वि.नि. के रैस्ट हाउस का पता पूछा। दुकानदार ने बताया यहां से तो वहां सिर्फ टैक्सी ही जाती है जो 50 रु. लेती है। हमने टैक्सी ली और रैस्ट हाउस की तरफ चले गये। करीब 20-25 मिनट में हम लोग रैस्ट हाउस पहुंच गये। हमारी बुकिंग पहले से ही थी सो उन्होंने हमें हमारे कमरे तक पहुंचा दिया। हमारे कमरे के सामने ही हिमालय का नजारा था पर इस समय हिमालय के ऊपर बादल आ गये थे इसलिये हमें हिमालय नहीं दिख पाया। हमने अपने लिये कॉफी यहीं मंगायी और बाहर से ही बैठ के पी। थोड़ा-थोड़ा भूख भी सताने लगी थी सो खाने के लिये भी ऑर्डर दे दिया। थके होने के कारण हमने तय किया कि पहले कुछ देर आराम करेंगे और फिर कहीं टहलने निकलेंगे।
करीब 4.30 बजे हम लोग टहलने के लिये निकले। इस समय कौसानी का नजरा बिल्कुल अलग ही था। रैस्ट हाउस वालों ने बताया कि यहां ऐसी तो कोई जगह नहीं है जहां आप इस समय जा सके। बस बाजार तक जा सकते हैं जहां से आप उस समय टैक्सी करके आये थे। आप लोग सड़क ही सड़क जाना कहीं भी दांये-बांये नहीं होना और साथ ही उन्होंने हमें यह भी कहा कि यहां एकदम अंधेरा हो जाता है और रात को रास्ता बिल्कुल सुनसान होता है जिस कारण जंगली जानवरों का खतरा है। इसलिये कोशिश करना कि समय से वापस आ जाओ।
यहां हमें काफी विदेशी सैलानी नजर आये। इस समय हमें महसूस हुआ हुआ कि यह रास्ता इतना लम्बा भी नहीं है शायद 2 किमी. ही होगा और सड़क बिल्कुल अच्छी खासी है। इस सड़क में कुछ और होटल भी हैं। कुछ देर में हम बाजार पहुंचे। सूर्यास्त का ही समय रहा होगा और बाजार लगभग बंद हो चुके थे। कहीं कोई इक्का-दुक्का दुकान ही खुली हुई थी और कहीं कुछ शराबी गिरते पड़ते दिखे।
हमें रैस्ट हाउस वालों की बात याद आ गयी सो वापस लौट गये। वापस लौटते हुए एक छोटा सा पहाड़ी नुमा रैस्टोरेंट हमारी नजरों में आ गया। जाते समय तो हम इसे नहीं देख पाये पर इस समय इसमें नजर पड़ गयी। अब ठंडी भी कुछ ज्यादा ही होने लगी थी। जैकेट पहने होने के बाद भी कपकपी लग रही थी इसलिये हमने वहां चाय पीने की सोची और साथ ही उसके यहां जल रही लकड़ी की आग सेकने का मन भी हो आया।
रैस्टोरेंट वाले से चाय के लिये कहा तो उसने बड़े उत्साह से कहा - आप बैठिये मैं अभी अदरक वाली चाय बना कर लाता हूं। उसके चाय बनाने तक हम लोग सगड़ में जल रही आग सेकने बैठ गये। शहरों में तो सिर्फ हीटर की आग ही होती है इसलिये लकड़ी की आग सेकने का मजा हममें से कोई भी खोना नहीं चाहता था। आग के पास कुछ और भी ग्रामीण बैठे हुए थे जिन्होंने हमसे मुखतिब होते हुए पूछा - आप लोग कहीं बाहर से आये हो ? हमने कहा - नहीं। हम लोग भी पहाड़ी ही हैं बस कौसानी घूमने आये हैं। उन्होंने कहा - अब तो यहां ज्यादा बाहर के लोग ही घूमने आते हैं जिनमें ज्यादातर बंगाली टूरिस्ट होते हैं। हमने कहा - हमें तो यहां विदेशी भी खूब दिख रहे हैं। उन्होंने कहा - कहां के विदेशी ? अब तो ये भी यहीं के पहाड़ी हो गये हैं। इनमें से कई विदेशी ऐसे हैं जो अब यहीं के आसपास के गांवों में बस गये हैं और उन्होंने यहीं के रहन सहन को अपना लिया है। ये लोग हिन्दी तो रही हिन्दी कुमाउंनी भाषा भी फर्राटे से बोलते हैं।
इन्हीं सब बातों के बीच चाय आ गयी। चाय की पहली चुस्की ने ही हमें पूरा तरोताजा कर दिया और उसी समय ये बात तय हो गयी कि जब तक यहां हैं चाय तो इसी दुकान में पियेंगे। उन लोगों के साथ चाय पीते-पीते कुछ और बातें की फिर हम लोग वापस आ गये। रात बिल्कुल गहरा गयी थी अचानक ही हमारी नजर आसमान की ओर पड़ी। आसमान बिल्कुल नीला था और उसमें तारे हीरों की तरह जगमगा रहे थे। इतना स्वच्छ और निर्मल आसमान अब शायद गांवों में ही कहीं दिखता होगा।
हम लोग अपनी बातों में इतने मशगूल थे कि पता ही नहीं चला कि हम कब रास्ता भटक गये और दूसरे रास्ते पर निकल गये। जब इस रास्ते में काफी आगे बढ़ गये तो हमें महसूस हुआ कि हम उंचाई की तरफ जा रहे हैं जबकि हमारा रास्ता बिल्कुल सीधा था। उस समय हमारे समझ में कुछ भी नहीं आया रास्ता एकदम सुनसान था। कहीं कोई हलचल नहीं थी। इस समय तो हम लोग थोड़ा घबरा गये थे क्योंकि ये भी समझ नहीं आ रहा था आखिर रास्ता पूछें भी तो किस से। उस पर से अपने मोबाइल भी रैस्ट हाउस में ही छोड़ गये थे। हम लोगों ने तय किया कि जिस रास्ते से आये हैं उसी रास्ते से वापस जाते हैं और वहीं-कहीं किसी मकान या होटल वालों से कुछ पूछ लेंगे। जब हम वापस लौटे तो हमें अपनी गलती पता चल गयी। असल में हुआ यूं कि एक जगह रास्ता दो सड़कों में कट गया था। हमें सीधे रास्ते पर जाना था लेकिन हम दूसरे रास्ते में निकल गये। सही रास्ता पाकर हमारी जान में जान आयी। उसके थोड़ी देर बाद हम लोग रैस्ट हाउस आ गये। रात के समय तो यहां बिल्कुल सन्नाटा सा पसर गया था। हम लोगों ने रात का खाना खाया और फिर कुछ देर यहां-वहां की बातें की और सो गये।
जारी...
Monday, June 15, 2009
Friday, June 12, 2009
एक छोटी सी ट्रेकिंग ऐसी भी - 2
किलबरी बाले रास्ते में तो हम लोग सिर्फ अपने जूतों को ही देखते रहे क्योंकि आजकल इस रास्ते में बेतहाशा जोंके भरी पड़ी थी और वो अपने पूरे घर-खानदान के साथ हमसे जंगल की चुंगी वसूलने के लिये तैयार बैठी हुई थी। हमने भी यही सोचा कि उनके इलाके में आये हैं तो चुंगी तो देनी ही पड़ेगी। खैर जोंके झाड़ते-झाड़ते हम लोग आगे बढ़ रहे थे और साथ में प्लानिंग भी कर रहे थे कि अगली बार कभी ऐसे मौसम में आये तो अपने जूतों में नमक-तल की मालिश करके लायेंगे और मोजों को तम्बाकू के पानी में भिगा के लायेंगे ताकि अपने ही जूतों को देखने के अलावा थोड़ा यहां-वहां भी देख लें।
हम लोग इस रास्ते पर थोड़ा आगे बड़े ही थे आसपास के गांवों से आने वाले कुछ लोगों ने बताया कि किलबरी का रास्ता बहुत ही ज्यादा खराब हो रखा है इसलिये हमने समझदारी इसमें ही समझी की किलबरी को छोड़ कर पंगूट की तरफ निकल जाया जाये। बरसात का मौसम होने के कारण रास्ते में कई जगह पानी के सोते निकले हुए थे। इन सोतों के पानी के आगे तो बिसलरी-विसलरी भी कुछ नहीं है। हम इन सोतों से ही अपनी पानी की बोतलें भर रहे थे। वैसे तो इन जंगलों में अभी भी काफी हर्बल पौंधे हैं लेकिन अब लोगों ने इनको उजाड़ना भी शुरू कर दिया है जिस कारण शायद आने वाले समय में इनकी संख्या में कमी भी होती जाये। जोंकें अभी भी हम लोगों को परेशान किये जा रही थी। हर पांच मिनट में हम लोग अपने पैरों से 4-5 जोंकों को तो निकाल ही रहे थे।
रास्ते में आसपास के गांव के कुछ लोग ही किसी किसी समय चलते हुए नजर आ रहे थे। इसी बीच हल्की-हल्की बूंदा-बांदी भी शुरू हो गई। पर हमारी किस्मत अच्छी थी कि ज्यादा तेज बारिश नहीं हुई। इसलिये हम लोग आगे बढ़ते रहे। करीब 1-2 घंटे बाद हम लोग पंगूट पहुंच गये। यहां पर हम लोग बैठ के थोड़ा सुस्ता ही रहे थे कि हमारी नजर हमारे साथ वाले के पैर में पड़ी जो कि खून से लथपथ था। जब हमने उसका पैर देखा तो पता चला की एक जोंक उसके पैर में बहुत गहरे तक घुसी हुई है और बुरी तरह उसके पैर को काट लिया है। इस जोंक को जब बाहर निकाला तो वो फूल के बिल्कुल कुप्पा हो रखी थी।
जोंक की यह फोटो साभार गुगल
हम अपने इसी काम में लगे ही हुए थे कि एक अंग्रेज महिला अपने दो बच्चों के साथ हमारे पास आ गयी। जोकों को देख कर उसे जो ताजुब्ब हुआ वो तो उसके चेहरे पर साफ नजर आ ही रहा था पर सबसे ज्यादा मजा तो तब आया जब उसने अपने बच्चों को जोंक दिखाते हुए कहा - `हाउ इन्ट्रस्टिंग´ और उसके बाद वो हंसते हुए चली गयी। हमारे जिसे दोस्त के पैर में जोंक ने बहुत जोर से काटा था उसने हम लोगों की तरफ देखते हुए बोला - यहां हमारी जान जा रही है और आंटी को ये सब इंन्ट्रस्टिंग लग रहा है। यहां पर आराम से बैठ के हमने अपने साथ में लाया हुआ खाना खाया और बातें करने लगे। किलबरी नहीं जा पाने की थोड़ी हताशा तो थी लेकिन फिर हम नैनीताल की ओर वापस लौट लिये।
आते समय हमने एक सड़क वाला रास्ता पकड़ा जिसमें हम जोंको के आतंक से बच गये। यहां से नैनीताल की दूरी करीब 11-12 किमी. की थी। यहां से हम थोड़ा यहां-वहां भी देख सके। कभी-कभी सड़क के दोनों ओर घने जंगल आ जा रहे थे तो कहीं से घाटियां दिख रही थी और कहीं से नजदीक के गांव नजर आ रहे थे। इन जंगलों में कई तरह की चिड़ियों की प्रजातियां है जिनमें से हमें हिमालयन वुड पैकर, लाफिंग थ्रस, मिनिविट, बुलबुल ही दिखायी दी। कहीं-कहीं पहाड़ी चट्टानों पर बुरांश के छोटे-छोटे पेड़ उग आये थे जिनमें से दो-एक पेड़ मेरे साथ वाले निकाल के अपने घर में लगाने के लिये लेकर भी आये।
हम लोग अपने हंसी मजाक के साथ आगे बढ़ रहे थे और वापस स्नोव्यू पहुंच गये। इस स्नोव्यू में दूर-दूर तक भी हिमालय का नामोनिशान नहीं था। यहां से हम सब लोगों को अपने-अपने रास्तों में जाना था इसलिये हम लोगों की एक छोटी सी बहस इस जगह भी शुरू हो गयी कि कौन सबसे ज्यादा चला ? और जब अच्छे से सोचा गया तो पता चला कि मेरा घर ही सबसे दूरी पे है तो मैं ही सबसे ज्यादा चलने वालों में नं वन रही और दूसरा नं मेरी दोस्त जो मेरे साथ स्टेशन से आयी थी उसका रहा। इस जगह से हम लोगों ने आपस में सबसे विदा ली और अपने-अपने घरों को चल दिये।
समाप्त
हम लोग इस रास्ते पर थोड़ा आगे बड़े ही थे आसपास के गांवों से आने वाले कुछ लोगों ने बताया कि किलबरी का रास्ता बहुत ही ज्यादा खराब हो रखा है इसलिये हमने समझदारी इसमें ही समझी की किलबरी को छोड़ कर पंगूट की तरफ निकल जाया जाये। बरसात का मौसम होने के कारण रास्ते में कई जगह पानी के सोते निकले हुए थे। इन सोतों के पानी के आगे तो बिसलरी-विसलरी भी कुछ नहीं है। हम इन सोतों से ही अपनी पानी की बोतलें भर रहे थे। वैसे तो इन जंगलों में अभी भी काफी हर्बल पौंधे हैं लेकिन अब लोगों ने इनको उजाड़ना भी शुरू कर दिया है जिस कारण शायद आने वाले समय में इनकी संख्या में कमी भी होती जाये। जोंकें अभी भी हम लोगों को परेशान किये जा रही थी। हर पांच मिनट में हम लोग अपने पैरों से 4-5 जोंकों को तो निकाल ही रहे थे।
रास्ते में आसपास के गांव के कुछ लोग ही किसी किसी समय चलते हुए नजर आ रहे थे। इसी बीच हल्की-हल्की बूंदा-बांदी भी शुरू हो गई। पर हमारी किस्मत अच्छी थी कि ज्यादा तेज बारिश नहीं हुई। इसलिये हम लोग आगे बढ़ते रहे। करीब 1-2 घंटे बाद हम लोग पंगूट पहुंच गये। यहां पर हम लोग बैठ के थोड़ा सुस्ता ही रहे थे कि हमारी नजर हमारे साथ वाले के पैर में पड़ी जो कि खून से लथपथ था। जब हमने उसका पैर देखा तो पता चला की एक जोंक उसके पैर में बहुत गहरे तक घुसी हुई है और बुरी तरह उसके पैर को काट लिया है। इस जोंक को जब बाहर निकाला तो वो फूल के बिल्कुल कुप्पा हो रखी थी।
जोंक की यह फोटो साभार गुगल
हम अपने इसी काम में लगे ही हुए थे कि एक अंग्रेज महिला अपने दो बच्चों के साथ हमारे पास आ गयी। जोकों को देख कर उसे जो ताजुब्ब हुआ वो तो उसके चेहरे पर साफ नजर आ ही रहा था पर सबसे ज्यादा मजा तो तब आया जब उसने अपने बच्चों को जोंक दिखाते हुए कहा - `हाउ इन्ट्रस्टिंग´ और उसके बाद वो हंसते हुए चली गयी। हमारे जिसे दोस्त के पैर में जोंक ने बहुत जोर से काटा था उसने हम लोगों की तरफ देखते हुए बोला - यहां हमारी जान जा रही है और आंटी को ये सब इंन्ट्रस्टिंग लग रहा है। यहां पर आराम से बैठ के हमने अपने साथ में लाया हुआ खाना खाया और बातें करने लगे। किलबरी नहीं जा पाने की थोड़ी हताशा तो थी लेकिन फिर हम नैनीताल की ओर वापस लौट लिये।
आते समय हमने एक सड़क वाला रास्ता पकड़ा जिसमें हम जोंको के आतंक से बच गये। यहां से नैनीताल की दूरी करीब 11-12 किमी. की थी। यहां से हम थोड़ा यहां-वहां भी देख सके। कभी-कभी सड़क के दोनों ओर घने जंगल आ जा रहे थे तो कहीं से घाटियां दिख रही थी और कहीं से नजदीक के गांव नजर आ रहे थे। इन जंगलों में कई तरह की चिड़ियों की प्रजातियां है जिनमें से हमें हिमालयन वुड पैकर, लाफिंग थ्रस, मिनिविट, बुलबुल ही दिखायी दी। कहीं-कहीं पहाड़ी चट्टानों पर बुरांश के छोटे-छोटे पेड़ उग आये थे जिनमें से दो-एक पेड़ मेरे साथ वाले निकाल के अपने घर में लगाने के लिये लेकर भी आये।
हम लोग अपने हंसी मजाक के साथ आगे बढ़ रहे थे और वापस स्नोव्यू पहुंच गये। इस स्नोव्यू में दूर-दूर तक भी हिमालय का नामोनिशान नहीं था। यहां से हम सब लोगों को अपने-अपने रास्तों में जाना था इसलिये हम लोगों की एक छोटी सी बहस इस जगह भी शुरू हो गयी कि कौन सबसे ज्यादा चला ? और जब अच्छे से सोचा गया तो पता चला कि मेरा घर ही सबसे दूरी पे है तो मैं ही सबसे ज्यादा चलने वालों में नं वन रही और दूसरा नं मेरी दोस्त जो मेरे साथ स्टेशन से आयी थी उसका रहा। इस जगह से हम लोगों ने आपस में सबसे विदा ली और अपने-अपने घरों को चल दिये।
समाप्त
Wednesday, June 10, 2009
एक छोटी सी ट्रेकिंग ऐसी भी - 1
मेरी यह ट्रेकिंग आज से करीब 7-8 साल पहले की है। उस समय मुझे और मेरे कुछ दोस्तों को ट्रेकिंग का नया-नया चस्का लगा ही था जो आज भी बदस्तूर जारी है। आजकल थोड़ा समय की कमी और कुछ नया न लिख पाने की मजबूरी के चलते इस पुरानी ट्रेकिंग को ही लगा रही हूं। जो मेरे लिये कई मायनों में खास भी है।
अचानक ही सुबह-सुबह फोन की घंटी बजी और मेरी दोस्त ने हड़बड़ाहट में कहा - विन्नी हम लोगों ने ट्रेकिंग में जाने का जो प्लान बनाया था वो फाइनल हो गया है। तू मुझे जल्दी से जल्दी स्टेशन पर मिलना हम लोग वहां से स्नोव्यू चलेंगे और बांकि लोग हमें वहां ही मिल जायेंगे। मैंने पूछा कितने बजे तक ? उसका जवाब था 7:15 तक। 7:15 बापरे... इस समय घड़ी 6:30 बजा रही थी... मतलब कि बिना आलस दिखाये हुए उठ कर सीधा तैयार होकर भागना पड़ेगा। खैर मैं जल्दी-जल्दी उठी तैयार हुई और बिना कॉफी पिये ही निकल गयी और 7:15 तक स्टेशन पहुंच गयी जहां मेरी दोस्त भी पहुंच गयी थी।
हम दोनों वहां से स्नोव्यू की तरफ निकल गये। सुबह के समय ये रास्ता खासा सूनसान सा लग रहा था और इस रास्ते की चढ़ाई भी अच्छी खासी है। कुछ मॉर्निंग वॉक करने वालों के अलावा यहां कोई हलचल नहीं थी। हम दोनों करीब 7:45 तक स्नोव्यू पहुंच गये जहां हमारे बांकी साथी हमारा इंतजार कर रहे थे। इस जगह को को स्नोव्यू इसलिये कहते हैं क्योंकि यहां से हिमालय की अच्छी खासी रेंज दिख जाती है पर अकसर ही हिमालय में बादल लगे होने के कारण हिमालय के दर्शन नहीं हो पाते लेकिन हमारी किस्मत अच्छी रही कि हमें थोड़ा सा हिमालय देखने को मिल गया। स्नोव्यू से हिमालय
यहां से हम लोग चीनापीक की तरफ निकल गये। रास्ते में हमें एक खंडहर दिखा जो कि किसी जमाने में स्कूल हुआ करता था पर आग लग जाने के कारण ये स्कूल पूरी तरह बर्बाद हो गया। पहले तो इन जगहों में सिर्फ पैदल या घोड़ों की मदद से ही आया जा सकता था पर अब सड़कें बन रही हैं। लेकिन इन सड़कों को देख कर काफी देर तक हम लोग यही सोचते रहे कि बिल्कुल 90 डिग्री की चढ़ाई में बनने वाली इन सड़कों में गाड़िया आयेंगी कैसे ? और यदि आ भी गयी तो क्या सही सलामत रहेंगी भी या नहीं ? हम लोग अपनी बातों में मशगूल थे और आगे बड़ रहे थे। अभी हम जिस जगह में खड़े थे यहां से नैनीताल का बहुत ही शानदार नजारा दिखता है और पूरी झील के ही बार में दिख जाती है। चीनापीक के रास्ते से नैनीताल
थोड़ा लम्बा मोटर मार्ग तय करने के बाद हम लोग एक कच्ची सड़क पे निकल गये। इस कच्ची सड़क के दोनों और काफी घना जंगल है जिसमें कई कई तरह की चिड़ियाऐं और जड़ी-बूटियां दिख जाती हैं। हमारे ग्रुप में कुछ लोग चिड़िया देखने के शौकिन थे तो कुछ जड़ी-बूटियों के इसलिये काफी कुछ जानकारियां हम लोग आपस में शेयर करते रहे। इन जंगलों में चिड़ियां तो बहुत हैं पर उन्हें देख पाना थोड़ा मुश्किल होता है। ये हमारी खुशकिस्मती ही थी कि हमारे नजरों के सामने से सिबिया निकल गयी जिसे देखकर हमने इसका नाम साहिबा रख दिया क्योंकि बहुत मुश्किल से हमें दिख पायी थी।
बारिश का मौसम होने के कारण रास्तों में जहां-तहां बड़ी स्लैग पड़ी हुई थी। जिन्हें देखकर हम आपस में एक दूसरे की डराने की नाकाम कोशिश कर रहे थे कि - ये स्लैग नहीं जोंक हैं जो खून पी पी कर इतनी बड़ी हो गयी हैं। मौसम धूप-छांव का खेल खेल रहा था और हम लोग भी एक दूसरे की टांग खींचते हुए और अपनी बातें करते हुए आगे बढ़ ही रहे थे कि उपर की तरफ से 4-5 लोगों का एक झुंड आया और हमारी तरफ देखते हुए बोला - चीनापीक की तरफ बहुत जोंकें हैं, संभल कर जाना। वो लोग भी शायद ट्रेकिंग पर ही आये थे। हमें चीनापीक पहुंचने के लिये थोड़ा चलना अभी बांकि था। करीब आधे घंटे बाद हम लोग अपने पहले प्वाइंट चीनापीक पर पहुंच ही गये। चीनापीक में एक बड़ा सा खम्बा लगा हुआ है जो नैनीताल शहर से ही आसानी से दिख जाता है। हम लोग सब इस खम्बे के पास खड़े होकर नैनीताल को देख रहे थे। यहां पर अंग्रेजों के जमाने का एक नक्शा भी लगा है जिसमें हिमालय की सारी चोटियों के नाम उनके क्रम के अनुसार ही दिये हैं। अंग्रेजों ने तो शायद इसे एक अच्छे उद्देश्य से ही बनाया होगा पर आज की तारीख में इसकी हालत बहुत दयनीय है।
चीनापीक में पहुंचते ही भूखी-प्यासी जोकों ने हमारा स्वागत बड़े प्यार से किया। अपने पूरे परिवार के साथ हमारी सेवा में हाजिर थी। हम अपने पैरों से जोक भी निकाल रहे थे और चीनापीक के नाम पर भी अपनी-अपनी राय दे रहे थे कि आखिर इस जगह का नाम चीनापीक क्यों पड़ा होगा ? सबसे मजेदार बात तो हमारे साथ वाले ने बतायी कि बहुत से लोग कहते हैं यहां से चीन की चोटियां दिखती होंगी जिस कारण इसका नाम चीनापीक पड़ा होगा। खैर हमें इसके नाम का सही-सही कारण तो पता नहीं चल पाया।
यहां कुछ देर बैठ कर हमने अपने पैरों से जोंकों को निकाला और कुछ बिस्कुल नमकीन खाये फिर आगे की तरफ बढ़ गये। रास्ते में हमें एक सांप दिखा पर वो बेचारा हमें देखते ही फटाफट भाग गया। यहां से हम लोगों ने किलबरी, पंगूट जाने वाला रास्ता पकड़ा जो कि बर्ड वॉचर के लिये जन्नत माना जाता है....
जारी....
अचानक ही सुबह-सुबह फोन की घंटी बजी और मेरी दोस्त ने हड़बड़ाहट में कहा - विन्नी हम लोगों ने ट्रेकिंग में जाने का जो प्लान बनाया था वो फाइनल हो गया है। तू मुझे जल्दी से जल्दी स्टेशन पर मिलना हम लोग वहां से स्नोव्यू चलेंगे और बांकि लोग हमें वहां ही मिल जायेंगे। मैंने पूछा कितने बजे तक ? उसका जवाब था 7:15 तक। 7:15 बापरे... इस समय घड़ी 6:30 बजा रही थी... मतलब कि बिना आलस दिखाये हुए उठ कर सीधा तैयार होकर भागना पड़ेगा। खैर मैं जल्दी-जल्दी उठी तैयार हुई और बिना कॉफी पिये ही निकल गयी और 7:15 तक स्टेशन पहुंच गयी जहां मेरी दोस्त भी पहुंच गयी थी।
हम दोनों वहां से स्नोव्यू की तरफ निकल गये। सुबह के समय ये रास्ता खासा सूनसान सा लग रहा था और इस रास्ते की चढ़ाई भी अच्छी खासी है। कुछ मॉर्निंग वॉक करने वालों के अलावा यहां कोई हलचल नहीं थी। हम दोनों करीब 7:45 तक स्नोव्यू पहुंच गये जहां हमारे बांकी साथी हमारा इंतजार कर रहे थे। इस जगह को को स्नोव्यू इसलिये कहते हैं क्योंकि यहां से हिमालय की अच्छी खासी रेंज दिख जाती है पर अकसर ही हिमालय में बादल लगे होने के कारण हिमालय के दर्शन नहीं हो पाते लेकिन हमारी किस्मत अच्छी रही कि हमें थोड़ा सा हिमालय देखने को मिल गया। स्नोव्यू से हिमालय
यहां से हम लोग चीनापीक की तरफ निकल गये। रास्ते में हमें एक खंडहर दिखा जो कि किसी जमाने में स्कूल हुआ करता था पर आग लग जाने के कारण ये स्कूल पूरी तरह बर्बाद हो गया। पहले तो इन जगहों में सिर्फ पैदल या घोड़ों की मदद से ही आया जा सकता था पर अब सड़कें बन रही हैं। लेकिन इन सड़कों को देख कर काफी देर तक हम लोग यही सोचते रहे कि बिल्कुल 90 डिग्री की चढ़ाई में बनने वाली इन सड़कों में गाड़िया आयेंगी कैसे ? और यदि आ भी गयी तो क्या सही सलामत रहेंगी भी या नहीं ? हम लोग अपनी बातों में मशगूल थे और आगे बड़ रहे थे। अभी हम जिस जगह में खड़े थे यहां से नैनीताल का बहुत ही शानदार नजारा दिखता है और पूरी झील के ही बार में दिख जाती है। चीनापीक के रास्ते से नैनीताल
थोड़ा लम्बा मोटर मार्ग तय करने के बाद हम लोग एक कच्ची सड़क पे निकल गये। इस कच्ची सड़क के दोनों और काफी घना जंगल है जिसमें कई कई तरह की चिड़ियाऐं और जड़ी-बूटियां दिख जाती हैं। हमारे ग्रुप में कुछ लोग चिड़िया देखने के शौकिन थे तो कुछ जड़ी-बूटियों के इसलिये काफी कुछ जानकारियां हम लोग आपस में शेयर करते रहे। इन जंगलों में चिड़ियां तो बहुत हैं पर उन्हें देख पाना थोड़ा मुश्किल होता है। ये हमारी खुशकिस्मती ही थी कि हमारे नजरों के सामने से सिबिया निकल गयी जिसे देखकर हमने इसका नाम साहिबा रख दिया क्योंकि बहुत मुश्किल से हमें दिख पायी थी।
बारिश का मौसम होने के कारण रास्तों में जहां-तहां बड़ी स्लैग पड़ी हुई थी। जिन्हें देखकर हम आपस में एक दूसरे की डराने की नाकाम कोशिश कर रहे थे कि - ये स्लैग नहीं जोंक हैं जो खून पी पी कर इतनी बड़ी हो गयी हैं। मौसम धूप-छांव का खेल खेल रहा था और हम लोग भी एक दूसरे की टांग खींचते हुए और अपनी बातें करते हुए आगे बढ़ ही रहे थे कि उपर की तरफ से 4-5 लोगों का एक झुंड आया और हमारी तरफ देखते हुए बोला - चीनापीक की तरफ बहुत जोंकें हैं, संभल कर जाना। वो लोग भी शायद ट्रेकिंग पर ही आये थे। हमें चीनापीक पहुंचने के लिये थोड़ा चलना अभी बांकि था। करीब आधे घंटे बाद हम लोग अपने पहले प्वाइंट चीनापीक पर पहुंच ही गये। चीनापीक में एक बड़ा सा खम्बा लगा हुआ है जो नैनीताल शहर से ही आसानी से दिख जाता है। हम लोग सब इस खम्बे के पास खड़े होकर नैनीताल को देख रहे थे। यहां पर अंग्रेजों के जमाने का एक नक्शा भी लगा है जिसमें हिमालय की सारी चोटियों के नाम उनके क्रम के अनुसार ही दिये हैं। अंग्रेजों ने तो शायद इसे एक अच्छे उद्देश्य से ही बनाया होगा पर आज की तारीख में इसकी हालत बहुत दयनीय है।
चीनापीक में पहुंचते ही भूखी-प्यासी जोकों ने हमारा स्वागत बड़े प्यार से किया। अपने पूरे परिवार के साथ हमारी सेवा में हाजिर थी। हम अपने पैरों से जोक भी निकाल रहे थे और चीनापीक के नाम पर भी अपनी-अपनी राय दे रहे थे कि आखिर इस जगह का नाम चीनापीक क्यों पड़ा होगा ? सबसे मजेदार बात तो हमारे साथ वाले ने बतायी कि बहुत से लोग कहते हैं यहां से चीन की चोटियां दिखती होंगी जिस कारण इसका नाम चीनापीक पड़ा होगा। खैर हमें इसके नाम का सही-सही कारण तो पता नहीं चल पाया।
यहां कुछ देर बैठ कर हमने अपने पैरों से जोंकों को निकाला और कुछ बिस्कुल नमकीन खाये फिर आगे की तरफ बढ़ गये। रास्ते में हमें एक सांप दिखा पर वो बेचारा हमें देखते ही फटाफट भाग गया। यहां से हम लोगों ने किलबरी, पंगूट जाने वाला रास्ता पकड़ा जो कि बर्ड वॉचर के लिये जन्नत माना जाता है....
जारी....
Thursday, June 4, 2009
ऐसे भी लोग होते हैं - ३
स्व. श्री बंशीधर कंसल इस देश के ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे जिन्होंने देश की आजादी के लिये अपना सब कुछ लुटा दिया पर फिर भी वह हमेशा गुमनामी के अंधेरे में ही खोये रहे। बंशीधर कंसल का जन्म सन् 1916 में नैनीताल में हुआ और जीवन के अंत तक उनकी कर्मस्थली भी जिला नैनीताल ही रही। फिर भी उन्हें उनकी ही कर्मस्थली में कभी भी वो सम्मान मिल पाया जिसके वो हकदार थे।
बंशीधर को बचपन से ही स्वतंत्रता संग्राम का माहौल मिला। उनके पिता स्व. श्री बाबू राम कंसल भी स्वतंत्रता सेनानी थे और उनकी देखा-देखी बंशीधर भी इस आंदोलन में शामिल हो गये। जब वह 7वीं या 8 वीं कक्षा में नैनीताल के हमफ्री हाईस्कूल (वर्तमान में सी.आर.एस.टी. इंटर कॉलेज, नैनीताल) में पढ़ते थे तब ही उन्होंने अंग्रेजो के स्कूल में ही उनका विरोध करते हुए भारत का तिरंगा झंडा फहरा दिया। जिस कारण उन्हें स्कूल से निकाल दिया और उनकी पढ़ाई हमेशा के लिये रुक गयी पर उनकी किस्मत अच्छी थी कि उन्हें अंग्रेजों के खिलाफ सर उठाने के गुनाह में गोली नहीं मारी क्योंकि उस समय यह कोई मजाक नहीं था। यहाँ से उनका पूरा जीवन सिर्फ और सिर्फ देश की आजादी के लिये समर्पित हो गया। इसके बाद वो अकसर ही अंग्रेजों को नुकसान पहुंचाने के लिये कुछ ऐसा काम जरूर करते जिससे उनकी जान खतरे में पड़ जाती, जैसे कभी वो डांकबंगलों में तोड़फोड़ कर देते, संचार के तारों को काट देते जिससे ब्रिटिश फौज का आपसी संपर्क कट जाता या किसी गोरे के साथ उलझ पड़ते। इन सब में उनका साथ देने वाले उनके परममित्र स्व. श्री प्रेम सिंह बिष्ट, स्व. श्री पान सिंह नेगी व स्व. श्री हीरा लाल साह भी शामिल थे। बंशीधर बेहद क्रोधी स्वभाव के थे। बात-बात में मरने मारने के लिये तैयार रहते और कभी किसी की गलत बात सहन नहीं कर पाते।
उनकी इसी आदत के कारण उनके पिता बाबू राम कंसल उनको महात्मा गांधी जी के पास ले गये। तब गांधी जी नैनीताल आये थे और वहीं से भवाली जाने वाले थे। बाबू राम कंसल ने उन्हें गांधी जी से मिलाते हुए कहा कि `यह मेरा बेटा है बंशीधर। आजादी के लिये समर्पित है पर बहुत ही क्रोधी स्वभाव का है। कभी-कभी मुझे डर लगता है कि यह गलत रास्ते पर न चला जाये। इसलिये मैं इसे आपकी सेवा में लाया हूँ। आप ही बतायें मैं क्या करूँ ?´ गांधी जी ने शांत मुद्रा में हंसते हुए कहा कि `कम से कम डरपोक तो नहीं है अपने विरोध को खुल कर सामने तो रखता है। तुम इसे मेरे साथ वर्धा आश्रम भेज दो। मुझे पूरी उम्मीद है कि इसके स्वभाव में परिवर्तन जरूर आयेगा।´ उसके बाद बंशीधर कंसल गांधी जी के साथ वर्धा आश्रम चले गये और 2 साल तक वहीं पर रहे। वहाँ से उनकी गांधीवादी पढ़ाई की शुरूआत हुई। वर्धा आश्रम तब हर तरह के स्वतंत्रता से जुड़े आंदोलन का मुख्य गढ़ हुआ करता था। वहाँ पर रह कर बंशीधर कंसल ने गुस्से में काबू पाना तो सीखा ही साथ ही उनका देश के लिये समपर्ण भी बढ़ता चला गया। वर्धा आश्रम में उन्होंने देखा कि किसी तरह का कोई भेदभाव, छुआछूत नहीं है। वहाँ का नियम था कि जो उस दिन पाखाना साफ करता था वही रसोई भी बनाता था ताकि किसी के मन में काम को लेकर बड़े-छोटे की भावना घर न कर जाये। इस माहौल का बंशीधर कंसल के ऊपर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा और उन्होंने ताउम्र इस बात को अपने मन में बैठाकर रखा। जब बंशीधर कंसल वर्धा से वापस आये उनके स्वभाव में काफी बदलाव आ गया था और वह बेहद शांत हो गये थे परन्तु अपने विरोध को वह अभी भी खुल कर सामने रखते और सत्य के लिये हमेशा डटे रहते।
अब बंशीधर कंसल की स्वतंत्रता संग्राम में सक्रियता दिन-ब-दिन बढ़ती गयी और अंग्रेज उनसे इतने अधिक नाखुश हो गये कि उन्होंने उनको मोस्ट वांटेड बना दिया और उनके खिलाफ वारंट निकाल कर अंडर सेक्शन 129 डी.आई.आर. (डिफेन्स इंडिया रूल) के तहत उनको 27-07-1942 को गिरफ्तार कर लिया। उनका उस समय अंग्रेजों पर इतना अधिक आतंक था कि उनको पकड़ने के लिये आये थानेदार स्व. ईश्वरी दत्त जोशी ने उनको कपड़े तक बदलने की मौहलत नहीं दी और उनकी कनपटी में पिस्तौल रख कर सीधे गिरफ्तार कर बरेली जेल भेज दिया।
बरेली जेल में उनके साथ काफी विभत्स व्यवहार किया गया। उन्हें बहुत मारा-पीटा जाता और खाना भी ढंग से नहीं दिया जाता। जेल के दौरन ही वह मलेरिया से ग्रसित हो गये पर उनका इलाज नहीं किया गया। जेल में ही वह अपनी एक आंख की रोशनी भी हमेशा के लिये खो बैठे। इतने पर भी गोरों का अत्याचार उनके प्रति कम नहीं हुआ। हमेशा उन्हें प्रताड़ित करने के लिये नये-नये तरीके इस्तेमाल करते रहते। उन्हीं दिनों बरेली जेल में वहाँ के सुपरिटेंडेंट आने वाले थे। जेलर ने सभी कैदियों के लिये फरमान जारी किया था कि सबको उनके स्वागत में खड़े उठकर सलाम करना पड़ेगा। जब सुपरिटेंडट आये तब दूसरे कैदी तो खड़े हुए पर बंशीधर कंसल न तो खड़े हुए और न सलाम ही किया। जब जेलर ने उनसे गुस्से में कहा कि `तुमने हमारा हुक्म क्यों नहीं माना ?´ उन्होंने कठोर शब्दों में जेलर को कहा कि - `यदि मुझे तुम्हारा या तुम्हारे मालिकों का हुक्म ही मानना होता तो मैं जेल में नहीं होता।´ यह सुनकर जेलर का गुस्सा और ज्यादा बढ़ गया और उसने बंशीधर कंसल को अलग बैरक में डाल दिया। एक दिन जब जेलर ने उनको डांठते हुए कहा कि `मैं तुझे ऐसा सबक सिखाउंगा कि सारा आजादी की नशा उतर जायेगा।´ तब बंशीधर कंसल ने बैरक से ही हाथ निकाल कर जेलर का हाथ जोर से मरोड़ा और अंदर पड़े बर्तन की तरफ इशारा करते हुए कहा कि `मैं तेरी नाक इस बर्तन से काट कर फांसी में चढ़ना पसंद करूंगा।´ उस दिन के बाद से उन्हें लोहे की बेड़ियों में जकड़ दिया गया और बहुत ही अमानवीय व्यवहार किया गया। 06-11-1943 को जब इन्हें लगभग सवा साल के कारावास के बाद छोड़ा गया तो उनकी हालत मरणासन्न थी पर फिर भी वह आजादी के संग्राम में डटे रहे।
उनके परिवार का तब नैनीताल में बहुत शानदार कारोबार था पर सब स्वतंत्रता की आग में जल गया। अंग्रेजों ने इनके घर और व्यवसाय की कुर्की करवा दी। बंशीधर कंसल का पूरा परिवार रातों-रात सड़क पर आ गया। उसके बाद बंशीधर का पूरा परिवार भवाली में आकर बस गया। भवाली उस समय नैनीताल वालों का शमशान घाट हुआ करता था। यहाँ पर उन्होंने परिवार को पालने के लिये एक छोटी सी मिठाई की दुकान खोली। बाहर से तो ये मिठाई की दुकान थी पर इसमें नीचे एक भूमिगत कमरा बनाकर एक छापाखाना खोला था जिसमें उस समय के अनुसार साइक्लोस्टाइल मशीन लगायी थी। यहाँ से सारे स्वतंत्रता संग्राम संबंधित लेख तथा अन्य सर्कुलेशन हाथ से लिख कर छापे जाते फिर उसे सब जगह बांटा जाता। भवाली का उनका घर आजादी की बैठकों का मुख्य अड्डा ही बन चुका था। जो भी मीटिंग या प्लानिंग होती थी वो वहीं से होती। चूंकि परिवार के सारे पुरुष ही स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े थे इसलिये घर में सिर्फ महिलायें और बच्चे ही थे जिनको हमेशा ब्रिटिश फौज के दबाव में रहना पड़ता था। कई बार तो दुकान में काम करने वाले श्री मदन सिंह चिनवाल को गोरे सिपाही पकड़ कर बेरहमी से पीट भी देते थे।
बंशीधर कंसल एक बार सुभाष चन्द्र बोस से भी मिले, जब वह भवाली सेनेटोरियम में थे। उनसे मिल के वह उनको व्यक्तित्व से काफी प्रभावित हुए पर उनका झुकाव हमेशा गांधी जी की तरफ ही रहा। उन्होंने गांधी को अपनी अंतरात्मा में बसा कर रखा और अपनी अंतिम सांस तक भी उनसे अलग नहीं हुए। उन्होंने हमेशा ही खादी के वस्त्रों का उपयोग किया और गांधी टोपी के बगैर वह कभी घर से बाहर नहीं निकले।
बंशीधर कंसल उन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में से थे जिन्होंने अपने स्वतंत्रता सेनानी होने का भी कोई लाभ नहीं लिया। उनको मिलने वाली 25 एकड़ भूमि को भी लेने से उन्होंने मना कर दिया था। उनके संबंध राजनीतिक लोगों के साथ बहुत अच्छे थे। इंदिरा गांधी व फिरोज गांधी से उनके बहुत आतमीय संबंध रहे। आजादी के बाद हुए राजनीतिक ह्रास से वे बेहद दु:खी रहे और हमेशा यही कहते थे कि `हमने ऐसे राज के लिये लड़ाई नहीं लड़ी थी। हमने तो स्वराज के लिये इतना सब किया।´ बंशीधर कंसल को 15 अगस्त 1972 में स्वतंत्रता के 25 वें वर्ष के अवसर पर श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा ताम्र पत्र भी भेंट किया गया है। वो हमेशा अपने आदर्शों और सत्य के मार्ग पर अड़े रहे और 15 सितम्बर 1978 को इस दुनिया से विदा हो गये।
बंशीधर को बचपन से ही स्वतंत्रता संग्राम का माहौल मिला। उनके पिता स्व. श्री बाबू राम कंसल भी स्वतंत्रता सेनानी थे और उनकी देखा-देखी बंशीधर भी इस आंदोलन में शामिल हो गये। जब वह 7वीं या 8 वीं कक्षा में नैनीताल के हमफ्री हाईस्कूल (वर्तमान में सी.आर.एस.टी. इंटर कॉलेज, नैनीताल) में पढ़ते थे तब ही उन्होंने अंग्रेजो के स्कूल में ही उनका विरोध करते हुए भारत का तिरंगा झंडा फहरा दिया। जिस कारण उन्हें स्कूल से निकाल दिया और उनकी पढ़ाई हमेशा के लिये रुक गयी पर उनकी किस्मत अच्छी थी कि उन्हें अंग्रेजों के खिलाफ सर उठाने के गुनाह में गोली नहीं मारी क्योंकि उस समय यह कोई मजाक नहीं था। यहाँ से उनका पूरा जीवन सिर्फ और सिर्फ देश की आजादी के लिये समर्पित हो गया। इसके बाद वो अकसर ही अंग्रेजों को नुकसान पहुंचाने के लिये कुछ ऐसा काम जरूर करते जिससे उनकी जान खतरे में पड़ जाती, जैसे कभी वो डांकबंगलों में तोड़फोड़ कर देते, संचार के तारों को काट देते जिससे ब्रिटिश फौज का आपसी संपर्क कट जाता या किसी गोरे के साथ उलझ पड़ते। इन सब में उनका साथ देने वाले उनके परममित्र स्व. श्री प्रेम सिंह बिष्ट, स्व. श्री पान सिंह नेगी व स्व. श्री हीरा लाल साह भी शामिल थे। बंशीधर बेहद क्रोधी स्वभाव के थे। बात-बात में मरने मारने के लिये तैयार रहते और कभी किसी की गलत बात सहन नहीं कर पाते।
उनकी इसी आदत के कारण उनके पिता बाबू राम कंसल उनको महात्मा गांधी जी के पास ले गये। तब गांधी जी नैनीताल आये थे और वहीं से भवाली जाने वाले थे। बाबू राम कंसल ने उन्हें गांधी जी से मिलाते हुए कहा कि `यह मेरा बेटा है बंशीधर। आजादी के लिये समर्पित है पर बहुत ही क्रोधी स्वभाव का है। कभी-कभी मुझे डर लगता है कि यह गलत रास्ते पर न चला जाये। इसलिये मैं इसे आपकी सेवा में लाया हूँ। आप ही बतायें मैं क्या करूँ ?´ गांधी जी ने शांत मुद्रा में हंसते हुए कहा कि `कम से कम डरपोक तो नहीं है अपने विरोध को खुल कर सामने तो रखता है। तुम इसे मेरे साथ वर्धा आश्रम भेज दो। मुझे पूरी उम्मीद है कि इसके स्वभाव में परिवर्तन जरूर आयेगा।´ उसके बाद बंशीधर कंसल गांधी जी के साथ वर्धा आश्रम चले गये और 2 साल तक वहीं पर रहे। वहाँ से उनकी गांधीवादी पढ़ाई की शुरूआत हुई। वर्धा आश्रम तब हर तरह के स्वतंत्रता से जुड़े आंदोलन का मुख्य गढ़ हुआ करता था। वहाँ पर रह कर बंशीधर कंसल ने गुस्से में काबू पाना तो सीखा ही साथ ही उनका देश के लिये समपर्ण भी बढ़ता चला गया। वर्धा आश्रम में उन्होंने देखा कि किसी तरह का कोई भेदभाव, छुआछूत नहीं है। वहाँ का नियम था कि जो उस दिन पाखाना साफ करता था वही रसोई भी बनाता था ताकि किसी के मन में काम को लेकर बड़े-छोटे की भावना घर न कर जाये। इस माहौल का बंशीधर कंसल के ऊपर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा और उन्होंने ताउम्र इस बात को अपने मन में बैठाकर रखा। जब बंशीधर कंसल वर्धा से वापस आये उनके स्वभाव में काफी बदलाव आ गया था और वह बेहद शांत हो गये थे परन्तु अपने विरोध को वह अभी भी खुल कर सामने रखते और सत्य के लिये हमेशा डटे रहते।
अब बंशीधर कंसल की स्वतंत्रता संग्राम में सक्रियता दिन-ब-दिन बढ़ती गयी और अंग्रेज उनसे इतने अधिक नाखुश हो गये कि उन्होंने उनको मोस्ट वांटेड बना दिया और उनके खिलाफ वारंट निकाल कर अंडर सेक्शन 129 डी.आई.आर. (डिफेन्स इंडिया रूल) के तहत उनको 27-07-1942 को गिरफ्तार कर लिया। उनका उस समय अंग्रेजों पर इतना अधिक आतंक था कि उनको पकड़ने के लिये आये थानेदार स्व. ईश्वरी दत्त जोशी ने उनको कपड़े तक बदलने की मौहलत नहीं दी और उनकी कनपटी में पिस्तौल रख कर सीधे गिरफ्तार कर बरेली जेल भेज दिया।
बरेली जेल में उनके साथ काफी विभत्स व्यवहार किया गया। उन्हें बहुत मारा-पीटा जाता और खाना भी ढंग से नहीं दिया जाता। जेल के दौरन ही वह मलेरिया से ग्रसित हो गये पर उनका इलाज नहीं किया गया। जेल में ही वह अपनी एक आंख की रोशनी भी हमेशा के लिये खो बैठे। इतने पर भी गोरों का अत्याचार उनके प्रति कम नहीं हुआ। हमेशा उन्हें प्रताड़ित करने के लिये नये-नये तरीके इस्तेमाल करते रहते। उन्हीं दिनों बरेली जेल में वहाँ के सुपरिटेंडेंट आने वाले थे। जेलर ने सभी कैदियों के लिये फरमान जारी किया था कि सबको उनके स्वागत में खड़े उठकर सलाम करना पड़ेगा। जब सुपरिटेंडट आये तब दूसरे कैदी तो खड़े हुए पर बंशीधर कंसल न तो खड़े हुए और न सलाम ही किया। जब जेलर ने उनसे गुस्से में कहा कि `तुमने हमारा हुक्म क्यों नहीं माना ?´ उन्होंने कठोर शब्दों में जेलर को कहा कि - `यदि मुझे तुम्हारा या तुम्हारे मालिकों का हुक्म ही मानना होता तो मैं जेल में नहीं होता।´ यह सुनकर जेलर का गुस्सा और ज्यादा बढ़ गया और उसने बंशीधर कंसल को अलग बैरक में डाल दिया। एक दिन जब जेलर ने उनको डांठते हुए कहा कि `मैं तुझे ऐसा सबक सिखाउंगा कि सारा आजादी की नशा उतर जायेगा।´ तब बंशीधर कंसल ने बैरक से ही हाथ निकाल कर जेलर का हाथ जोर से मरोड़ा और अंदर पड़े बर्तन की तरफ इशारा करते हुए कहा कि `मैं तेरी नाक इस बर्तन से काट कर फांसी में चढ़ना पसंद करूंगा।´ उस दिन के बाद से उन्हें लोहे की बेड़ियों में जकड़ दिया गया और बहुत ही अमानवीय व्यवहार किया गया। 06-11-1943 को जब इन्हें लगभग सवा साल के कारावास के बाद छोड़ा गया तो उनकी हालत मरणासन्न थी पर फिर भी वह आजादी के संग्राम में डटे रहे।
उनके परिवार का तब नैनीताल में बहुत शानदार कारोबार था पर सब स्वतंत्रता की आग में जल गया। अंग्रेजों ने इनके घर और व्यवसाय की कुर्की करवा दी। बंशीधर कंसल का पूरा परिवार रातों-रात सड़क पर आ गया। उसके बाद बंशीधर का पूरा परिवार भवाली में आकर बस गया। भवाली उस समय नैनीताल वालों का शमशान घाट हुआ करता था। यहाँ पर उन्होंने परिवार को पालने के लिये एक छोटी सी मिठाई की दुकान खोली। बाहर से तो ये मिठाई की दुकान थी पर इसमें नीचे एक भूमिगत कमरा बनाकर एक छापाखाना खोला था जिसमें उस समय के अनुसार साइक्लोस्टाइल मशीन लगायी थी। यहाँ से सारे स्वतंत्रता संग्राम संबंधित लेख तथा अन्य सर्कुलेशन हाथ से लिख कर छापे जाते फिर उसे सब जगह बांटा जाता। भवाली का उनका घर आजादी की बैठकों का मुख्य अड्डा ही बन चुका था। जो भी मीटिंग या प्लानिंग होती थी वो वहीं से होती। चूंकि परिवार के सारे पुरुष ही स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े थे इसलिये घर में सिर्फ महिलायें और बच्चे ही थे जिनको हमेशा ब्रिटिश फौज के दबाव में रहना पड़ता था। कई बार तो दुकान में काम करने वाले श्री मदन सिंह चिनवाल को गोरे सिपाही पकड़ कर बेरहमी से पीट भी देते थे।
बंशीधर कंसल एक बार सुभाष चन्द्र बोस से भी मिले, जब वह भवाली सेनेटोरियम में थे। उनसे मिल के वह उनको व्यक्तित्व से काफी प्रभावित हुए पर उनका झुकाव हमेशा गांधी जी की तरफ ही रहा। उन्होंने गांधी को अपनी अंतरात्मा में बसा कर रखा और अपनी अंतिम सांस तक भी उनसे अलग नहीं हुए। उन्होंने हमेशा ही खादी के वस्त्रों का उपयोग किया और गांधी टोपी के बगैर वह कभी घर से बाहर नहीं निकले।
बंशीधर कंसल उन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में से थे जिन्होंने अपने स्वतंत्रता सेनानी होने का भी कोई लाभ नहीं लिया। उनको मिलने वाली 25 एकड़ भूमि को भी लेने से उन्होंने मना कर दिया था। उनके संबंध राजनीतिक लोगों के साथ बहुत अच्छे थे। इंदिरा गांधी व फिरोज गांधी से उनके बहुत आतमीय संबंध रहे। आजादी के बाद हुए राजनीतिक ह्रास से वे बेहद दु:खी रहे और हमेशा यही कहते थे कि `हमने ऐसे राज के लिये लड़ाई नहीं लड़ी थी। हमने तो स्वराज के लिये इतना सब किया।´ बंशीधर कंसल को 15 अगस्त 1972 में स्वतंत्रता के 25 वें वर्ष के अवसर पर श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा ताम्र पत्र भी भेंट किया गया है। वो हमेशा अपने आदर्शों और सत्य के मार्ग पर अड़े रहे और 15 सितम्बर 1978 को इस दुनिया से विदा हो गये।
Monday, June 1, 2009
मेरी हरिद्वार यात्रा - 4
आज शाम को हम थोड़ा जल्दी बाजार निकलने की सोची ताकि बाजार देखते हुए हम बिरला घाट की तरफ जा सके। जब हम बाजार की तरफ निकले एक ठंडाई की दुकान पर रुक गये। हालांकि हम पहले दिन से ही ठंडाई की दुकानों को देख रहे थे पर तब हमें लगा कि शायद ये भांग की दुकान होंगी पर होटल मैनेजर ने बताया कि ये भांग वाली ठंडाई नहीं है। सो आज हम पीने चल दिये। इसे बनाने का तरीका बिल्कुल पारम्परिक है। पत्थर के कटोरे जैसे में लम्बे से बेलन नुमा लकड़ी से सभी हर्बल को अच्छे से घोट-घोट के इसे बनाया जाता है। इसका सबसे अधिक आकर्षण है बेलन के उपर लगा झुनझुना। जो हिलता रहता है और बहुत अच्छी धुन निकालता है। इसे पीना भी उतना ही अच्छा लगा। इसके बाद हम आगे की तरफ बाजार में निकल गये।
बाजारों के बीच से भी कई बाजारें निकल रही थी। कहीं किसी चीज की बाजार तो कहीं किसी चीज की बाजार। अचानक मेरी नजर एक दुकान में पड़ी जिसमें घरों में इस्तेमाल होने वाले कई तरह के सामान मिल रहे थे। उसी दुकान में दरवाजों में लगाये जाने वाले नींबू मिर्च भी मिल रहे थे। वो भी बिल्कुल प्लास्टिक के। मैं तो ये पहली बार देख रही थी इसलिये दुकानदार से पूछ ही लिया - कि क्या इनकी बिक्री भी होती है ? उसने कहा - सबसे ज्यादा तो यही बिकते हैं, वैसे भी आज की बिजी लाइफ में रोज के रोज नींबू मिर्च बदलने का समय किसके पास है। ताजुब्ब है आज के आधुनिक युग में अंध विश्वास का भी बाजारीकरण होने लगा है खैर मुझे इसकी जरूरत तो नहीं थी पर हां फोटो लिये बगैर अपने को नहीं रोक पाई।
वैसे तो अब हरिद्वार में ज्यादातर आधुनिक तरह के होटल ही बन गये हैं पर फिर भी कहीं-कहीं पुराने शिल्प की इमारतें दिख जाती हैं। बाजार में घूमते-घूमते हम कुछ देर के बाद बिरला घाट पहुंच गये। यहां हर की पैड़ी जितनी भीड़ नहीं थी। लोग आराम से गंगा के किनारे बैठ के गंगा का नजारा देख रहे थे। इसके किनारे भी कई छोटे बड़े मंदिर हैं। बिरला घाट में कुछ देर बैठने के बाद हम लोग पुल पार करते हुए दूसरी तरफ से हर की पैड़ी की ओर मुड़ गये।
शाम के समय इन रास्तों में लोगों की हलचल बढ़ गयी थी। काफी लोग घाट के किनारे टहल रहे थे। बहुत से लोग अपने-अपने कामों में भी लगे थे। कोई कान साफ कर रहा था, कोई सेविंग कर रहा था, कोई सिक्के बेच रहा था, कोई फूल माला बेच रहा था कोई रुई बेच रहा था....गंगा जी के रहते हुए सब की रोटी का इंतजाम तो पक्का था। ये सब देख के एहसास हुआ कि हिन्दुस्तान में मंदी का असर इतनी आसानी से तो नहीं पड़ने वाला क्योंकि लोगों ने इतने ढेर सारे रोजगार के विकल्प खोज रखे हैं कि उनपे किसी चीज का कोई असर नहीं पड़ता। काफी हद तक ये अच्छा भी है।
हम लोग एक के बाद घाट पार करते हुए हर की पैड़ी की ओर बढ़ रहे थे। तभी अचानक हम गऊ घाट में पहुंचे। इस घाट के नाम में हमारी नजर इसलिये पड़ गयी क्योंकि उसके नीचे बड़ी सी हाथी की मूर्ति लगी थी और उपर बड़े अक्षरों में लिखा था गऊ घाट।
हर की पेड़ी में आरती देखने वालों की काफी भीड़ इकट्ठा होने लगी थी पर अभी आरती शुरू होने में समय था सो हम आगे की ओर निकल गये और आरती शुरू होते समय वापस आ गये। आज भी हमने अपने लिये एक जगह का जुगाड़ कर लिया और आरती देखी। शाम के समय गंगा घाट का नजारा बहुत खुबसूरत होता है और उसमें चार चांद लगाते हैं गंगा में बहने वाले दिये। आरती के बाद हम फिर से बाजार होते हुए उसी होटल में गये और खाना खा कर वापस होटल आ गये।
अगली सुबह हमने हर की पैड़ी को सुबह के समय देखने की सोची और निकल गये घाट की ओर। आज भीड़ बहुत ज्यादा बढ़ी हुई थी क्योंकि अमावस्या थी। घाट का नजारा सुबह के समय दूसरा ही लग रहा था। स्नान करने वालों की संख्या भी काफी बढ़ी हुई थी और पूरा घाट लोगों से भरा पड़ा था।
हम लोग जल्द ही वहां से वापस आ गये और अचानक ही हमने कनखल जाने का इरादा बना लिया और टैक्सी करके हम कनखल की तरफ निकल गये। ऐसी मान्यता है कि राजा दक्ष ने एक यज्ञ करवाया जिसमें उन्होंने सभी देवताओं को बुलवाया पर शिव को नहीं बुलाया। अपने पति का यह अपमान सती स्वीकार नहीं कर पायी और यज्ञ वेदी में कूद कर अपने प्राण त्याग दिये। उसके बाद शिव उनके शरीर को लेकर पूरे संसार में तांडव करने लगे। और जहां-जहां सती के अंग गिरे वहां-वहां शक्तिपीठ बन गये। कनखल में काफी अच्छे और भव्य मंदिर हैं। हम पहले द्शेश्वर महादेव के मंदिर में गये। इस परिसर के बाहर एक कब्रगाह भी है जिसमें बहुत सारी कब्रें बनी हुई हैं शायद साधुओं की होंगी। मुझे ये जानकारी नहीं मिल पायी।
कनखल से ही कुछ दूरी पे आनन्दयी मां का मंदिर है। इस स्थान में सचमुच काफी आनन्द आता है।
यहीं से कुछ दूरी पर श्री पारदेश्वर महादेव का मंदिर था। इस मंदिर की जो विशेष चीज मुझे लगी वो थी रुद्राक्ष का पेड़ जो मैंने पहली बार देखा। इस पेड़ के चारों बड़े-बड़े शिवलिंग रखे हुए थे।
यहां से हम बाहर निकले ही थे कि मेरे साथ वालों को एक नान-खताई वाला दिख गया और एकदम चिल्लाते हुए बोले - अरे वो नानखताई वाला। अब तो ये दिखती ही नहीं है। बचपन में हम बहुत खाते थे। उनके ऐसा कहने का बाद हम लोग नानखताई वाले के पास चले गये और नानखताई ली। मैंने पहली बार नानखताई खायी और बहुत मजा आया इसलिये कुछ हमने खरीद के रख ली।
अब फिर काफी दिन निकल चुका था और गर्मी बहुत बढ़ रही थी। हालांकि पहले हमने सोचा कि मनसा देवी जा सकते हैं पर जैसे ही मनसा देवी के रास्ते पे पहुंचे हमने अपना इरादा बदल दिया क्योंकि शाम को हमने हरिद्वार को छोड़ना भी था सो हमने खाना और गुलाब जामुन खाकर होटल वापस जाना ही ठीक समझा। शाम के समय हम फाइनल बार घाट की तरफ गये थोड़ी देर गंगा के किनारे बैठे रहे और गंगाजी को निहारते रहे और फिर वापस हो लिये....
समाप्त
बाजारों के बीच से भी कई बाजारें निकल रही थी। कहीं किसी चीज की बाजार तो कहीं किसी चीज की बाजार। अचानक मेरी नजर एक दुकान में पड़ी जिसमें घरों में इस्तेमाल होने वाले कई तरह के सामान मिल रहे थे। उसी दुकान में दरवाजों में लगाये जाने वाले नींबू मिर्च भी मिल रहे थे। वो भी बिल्कुल प्लास्टिक के। मैं तो ये पहली बार देख रही थी इसलिये दुकानदार से पूछ ही लिया - कि क्या इनकी बिक्री भी होती है ? उसने कहा - सबसे ज्यादा तो यही बिकते हैं, वैसे भी आज की बिजी लाइफ में रोज के रोज नींबू मिर्च बदलने का समय किसके पास है। ताजुब्ब है आज के आधुनिक युग में अंध विश्वास का भी बाजारीकरण होने लगा है खैर मुझे इसकी जरूरत तो नहीं थी पर हां फोटो लिये बगैर अपने को नहीं रोक पाई।
वैसे तो अब हरिद्वार में ज्यादातर आधुनिक तरह के होटल ही बन गये हैं पर फिर भी कहीं-कहीं पुराने शिल्प की इमारतें दिख जाती हैं। बाजार में घूमते-घूमते हम कुछ देर के बाद बिरला घाट पहुंच गये। यहां हर की पैड़ी जितनी भीड़ नहीं थी। लोग आराम से गंगा के किनारे बैठ के गंगा का नजारा देख रहे थे। इसके किनारे भी कई छोटे बड़े मंदिर हैं। बिरला घाट में कुछ देर बैठने के बाद हम लोग पुल पार करते हुए दूसरी तरफ से हर की पैड़ी की ओर मुड़ गये।
शाम के समय इन रास्तों में लोगों की हलचल बढ़ गयी थी। काफी लोग घाट के किनारे टहल रहे थे। बहुत से लोग अपने-अपने कामों में भी लगे थे। कोई कान साफ कर रहा था, कोई सेविंग कर रहा था, कोई सिक्के बेच रहा था, कोई फूल माला बेच रहा था कोई रुई बेच रहा था....गंगा जी के रहते हुए सब की रोटी का इंतजाम तो पक्का था। ये सब देख के एहसास हुआ कि हिन्दुस्तान में मंदी का असर इतनी आसानी से तो नहीं पड़ने वाला क्योंकि लोगों ने इतने ढेर सारे रोजगार के विकल्प खोज रखे हैं कि उनपे किसी चीज का कोई असर नहीं पड़ता। काफी हद तक ये अच्छा भी है।
हम लोग एक के बाद घाट पार करते हुए हर की पैड़ी की ओर बढ़ रहे थे। तभी अचानक हम गऊ घाट में पहुंचे। इस घाट के नाम में हमारी नजर इसलिये पड़ गयी क्योंकि उसके नीचे बड़ी सी हाथी की मूर्ति लगी थी और उपर बड़े अक्षरों में लिखा था गऊ घाट।
हर की पेड़ी में आरती देखने वालों की काफी भीड़ इकट्ठा होने लगी थी पर अभी आरती शुरू होने में समय था सो हम आगे की ओर निकल गये और आरती शुरू होते समय वापस आ गये। आज भी हमने अपने लिये एक जगह का जुगाड़ कर लिया और आरती देखी। शाम के समय गंगा घाट का नजारा बहुत खुबसूरत होता है और उसमें चार चांद लगाते हैं गंगा में बहने वाले दिये। आरती के बाद हम फिर से बाजार होते हुए उसी होटल में गये और खाना खा कर वापस होटल आ गये।
अगली सुबह हमने हर की पैड़ी को सुबह के समय देखने की सोची और निकल गये घाट की ओर। आज भीड़ बहुत ज्यादा बढ़ी हुई थी क्योंकि अमावस्या थी। घाट का नजारा सुबह के समय दूसरा ही लग रहा था। स्नान करने वालों की संख्या भी काफी बढ़ी हुई थी और पूरा घाट लोगों से भरा पड़ा था।
हम लोग जल्द ही वहां से वापस आ गये और अचानक ही हमने कनखल जाने का इरादा बना लिया और टैक्सी करके हम कनखल की तरफ निकल गये। ऐसी मान्यता है कि राजा दक्ष ने एक यज्ञ करवाया जिसमें उन्होंने सभी देवताओं को बुलवाया पर शिव को नहीं बुलाया। अपने पति का यह अपमान सती स्वीकार नहीं कर पायी और यज्ञ वेदी में कूद कर अपने प्राण त्याग दिये। उसके बाद शिव उनके शरीर को लेकर पूरे संसार में तांडव करने लगे। और जहां-जहां सती के अंग गिरे वहां-वहां शक्तिपीठ बन गये। कनखल में काफी अच्छे और भव्य मंदिर हैं। हम पहले द्शेश्वर महादेव के मंदिर में गये। इस परिसर के बाहर एक कब्रगाह भी है जिसमें बहुत सारी कब्रें बनी हुई हैं शायद साधुओं की होंगी। मुझे ये जानकारी नहीं मिल पायी।
कनखल से ही कुछ दूरी पे आनन्दयी मां का मंदिर है। इस स्थान में सचमुच काफी आनन्द आता है।
यहीं से कुछ दूरी पर श्री पारदेश्वर महादेव का मंदिर था। इस मंदिर की जो विशेष चीज मुझे लगी वो थी रुद्राक्ष का पेड़ जो मैंने पहली बार देखा। इस पेड़ के चारों बड़े-बड़े शिवलिंग रखे हुए थे।
यहां से हम बाहर निकले ही थे कि मेरे साथ वालों को एक नान-खताई वाला दिख गया और एकदम चिल्लाते हुए बोले - अरे वो नानखताई वाला। अब तो ये दिखती ही नहीं है। बचपन में हम बहुत खाते थे। उनके ऐसा कहने का बाद हम लोग नानखताई वाले के पास चले गये और नानखताई ली। मैंने पहली बार नानखताई खायी और बहुत मजा आया इसलिये कुछ हमने खरीद के रख ली।
अब फिर काफी दिन निकल चुका था और गर्मी बहुत बढ़ रही थी। हालांकि पहले हमने सोचा कि मनसा देवी जा सकते हैं पर जैसे ही मनसा देवी के रास्ते पे पहुंचे हमने अपना इरादा बदल दिया क्योंकि शाम को हमने हरिद्वार को छोड़ना भी था सो हमने खाना और गुलाब जामुन खाकर होटल वापस जाना ही ठीक समझा। शाम के समय हम फाइनल बार घाट की तरफ गये थोड़ी देर गंगा के किनारे बैठे रहे और गंगाजी को निहारते रहे और फिर वापस हो लिये....
समाप्त