Wednesday, January 7, 2009

अल्मोड़ा यात्रा - २


मेरे पास सिर्फ आज ही का दिन था अल्मोड़ा घूमने के लिये सो हमने बाजार वाली सड़क पकड़ी क्योंकि आधे से ज्यादा अल्मोड़ा तो इस बाजार में ही मिल जाता है जैसे - थाना बाजार, लाला बाजार, जौहरी बाजार.....। सबसे पहले हम थाना बाजार पहुंचे। दशहरा होने के कारण बाजार में काफी चहल-पहल थी। अल्मोड़े का दशहरा बहुत ही अलग होता है (इस दशहरे के बारे में मैंने चित्रों समेत अपनी पिछली पोस्ट लेबल त्यौहार में दिया है)। इस रास्ते में ही हम आगे बढ़ते रहे। हर मोहल्ले का एक पुतला सड़क पर खड़ा दिखा। कुछ मोहल्ले वालों ने दुर्गा की मूर्तिया भी बना के अपने मोहल्लों के आगे लगा रखी थी। शाम को इन पुतलों की सड़क पे परेड होनी थी सो इन सभी पुतलों को एक स्थान में खड़ा करने के कवायद में सब जन जुटे हुए थे।


इस सड़क में हम सबसे पहले मूरली मनोहर मंदिर में पहुंचे। इस मंदिर का निर्माण सन् 1880 में स्व. कुन्दन लाल साह की धर्म पित्नयों द्वारा कराया गया था। इतने प्राचीन मंदिर को देखना एक अलग अनुभव था पर मुझे जो बात सबसे बुरी लगी वो ये कि - इस मंदिर की बाहरी दीवारों में चूना पोता गया है जो इसकी प्राचीनता को तबाह करता हुआ सा लगा। इस सड़क में बहुत से छोटे-बड़े मंदिर हैं। जिनमे से ज्यादातर मंदिर काफी प्राचीन हैं। जब थोड़ा आगे और बड़े तो एक पुतला और खड़ा दिखा। इस पुतले को छोड़ के हम आगे बढ़ गये


अल्मोड़ा की तहसील जिसे मल्ला महल भी कहते हैं, में पहुंचे। इस महल का निर्माण कुमाऊं के चंद राजाओं द्वारा किया गया था जिसे बाद में 26 मार्च 1815 में ब्रिटिश सरकार द्वारा हथिया लिया गया था। इस परिसर के बाहर एक ऐतिहासिक मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण चंद वंशीय राजा रुद्रचंद द्वारा 1588 ई. में कराया गया था। इस पूरे परिसर में घूमने के बाद इसी सड़क में आगे बढ़े और जिला अस्पताल जा पहुंचे। हम में से कोई भी बीमार तो नहीं था पर फिर भी इसे देखने की इच्छा हमें इसके अंदर ले गयी। अस्पताल के अंदर का माहौल तो अच्छा लग रहा था पर सर्विस कैसी थी ये परखने का मौका नहीं मिला क्योंकि समय थोड़ा कम था पर यहां से मैंने अल्मोड़ा के कुछ तस्वीरें जरूर ले ली।

अब इसके बाद हम जा पहुंचे अल्मोड़ा एक और प्राचीन और विख्यात मंदिर में। जिसका नाम है माँ नन्दा देवी मंदिर। यहां भी कुछ मंदिरों के नमूने जागेश्वर की तरह हैं। इस मंदिर में बाहर से ही घूमने के बाद हमने फैसला किया कि जिस जगह पुतले इकट्ठा होते हैं वहां चला जाये पर तभी किसी ने बताया कि पुतले पहुंचने में तो देर है। शंभू जी का घर वहां से पास ही में था सो हम उनके घर नींबू वाली चाय पीने चले गये। कुछ देर वहां रुकने के बाद वापस बाजार आ गये। दोपहर के 2 बज चुके थे पर अभी भी पुतलों का कोई नामो निशान नहीं था। तभी हमें अपनी पहचान के एक सज्जन दिखे और हम उनका पीछा करते हुए उनके घर चल दिये।

उनको जब पता चला कि मैं अल्मोड़ा घूमने आयी हूं तो उन्होंने मुझसे पूछा - तूने पर्दा नौला (पानी का कुंड) देखा। मैंने उनसे बताया - अभी तो नहीं। उसके बाद हम तीनों जन पर्दा नौला देखने चले गये। उन्होंने बताया - काफी समय तक ये मट्टी के नीचे दबा रहा और अभी कुछ समय पहले ही इसका पता चला। ताजुब्ब की बात थी कि इतने समय तक सीमेंट, मिट्टी में दबे रहने के बाद भी इसमें पानी है जिसका इस्तेमाल आसपास के लोग पीने के लिये करते हैं। उन्होंने बताया - पर्दा नौला पुराने जमाने में महारानियों के लिये बने होते थे जिनका इस्तेमाल वो नहाने इत्यादि के लिये करती थी। उसी सड़क से जब हम वापस लौटे तो मुझे एक मूर्ति बनी हुई नजर आयी। पूछने में पता चला कि यह मूर्ति राजा आनन्द सिंह जी की है। जो अपने वंश के अंतिम राजा थे। इन्होंने ही अल्मोड़ा में बालिका इंटर कॉलेज का निर्माण करवाया था। इसलिये उस स्कूल के आंगन में इनकी भव्य मूर्ति लगी हुई है।


जब हम वापस आ रहे थे तो हमें पुतले इकट्ठे होते हुए दिखने लगे पर भीड़ इतनी ज्यादा थी कि तिल रखने को भी जगह नहीं थी। शंभू जी ने कहा - मैं बाजार में अपने किसी पहचान वाले के यहां तेरे रुकने का इंतजाम कर दूंगा। तू वहां से आराम से देखना और शाम को वापस होटल पहुंचा दूंगा। मुझे उनका ये आइडिया अच्छा लगा और हम लोग अल्मोड़ा की अलियों-गलियों से होते हुए वापस बाजार पहुचे गये। परेड शुरू होने में अभी भी काफी समय था सो हम फिर सड़क में टहलने लगे। इस सड़क में पहले पटालें बिछी हुई थी जो पत्थर की थी पर बाद में उन्हें बदल के टाइल्स लगा दिये गये। जो चिकनी होने के कारण बहुत फिसलती हैं। शंभू जी ने बताया - जबसे ये टाइल्स बिछी हैं तबसे से अल्मोड़ा में हड्डी के डॉक्टर का बिजनेस अच्छा चलता है क्योंकि हर रोज कोई न कोई अपनी हड्डी तो तुड़वाता ही है। मेरे समाने ही कम से कम 8-10 जन तो फिसले ही।

इस बार परेड शुरू होने में बहुत देर हो रही थी। कारण क्या थे मुझे पता नहीं चल पाया। करीब 4 बजे गये थे और कहीं कुछ नहीं दिख रहा था। तभी हम दोनों जन शंभू जी के पहचान वालों के घर चले गये। वो एक मुस्लिम परिवार था। पर अल्मोड़ा की ये एक खासियत है कि यहां के मुस्लिम पहाड़ी ज्यादा हैं। इन लोगों का बोली-व्यवहार, रहन-सहन सब कुछ पहाड़ी जैसा ही है। इस परिवार के साथ शंभू जी मुझे छोड़ कर वापस आ गये। हम लोगों में काफी बातचीत हुई। उन्होंने भी कहा कि और बार तो करीब 6.30 बजे तक पुतले आ जाते थे पर इस बार जाने क्या हुआ। अब मुझे भूख भी सताने लगी थी। उनका दोस्ताना व्यवहार देख के मैंने बिना किसी संकोच के उनसे खाने की फरमाइश कर दी। कुछ ही देर में वो मेरे लिये खाना ले आये। पेट में रोटी गयी तो पुतलों का इंतजार करने की ताकत भी आ गयी और फैसला किया कि चाहे आधी रात तक भी क्यों न रुकना पड़े बिना देखे तो अब वापस नहीं जाउंगी।

रात को करीब 8 बजे पुतले उनके घर के सामने पहुंचे। एक बाद एक पुतले आते जा रहे थे और जिस मोहल्ले के पुतले थे वो उनके साथ नाच गा कर पूरा जश्न मना रहे थे। यहां से ये पुतले सीधे उस स्थान की तरफ जा रहे थे जहां इनका अंतिम संस्कार होना था। 9 बज गये थे और अभी तक भी पूरे पुतले नहीं पहुंचे थे। मुझे वापस होटल पहुंचने की फिक्र भी होने लगी थी। इतने में ही शंभू जी अपने एक मित्र के साथ आ गये। मैंने उनके साथ होटल जाना ही ठीक समझा और उस सड़क के साथ लगी दूसरी गली से हम वापस आ गये जहां कुछ शराबी इधर-उधर लुढ़के हुए थे। दोनों जन मुझे होटल छोड़ के वापस चले गये। मैं जैसे ही कमरे में पहुंची। कुछ हल्ले-गुल्ले की आवाजें आने लगी। बाहर आ कर देखा तो होटल के पीछे वाली सड़क से पुतले जा रहे थे और करीब 1 बजे रात तक ये हल्ला होता रहा।

जारी.........

17 comments:

  1. जानकारी के अभाव में लोग प्राचीन मूर्तियों और मंदिरों को चुने से रंग देते हैं जो इन्हे नुकसान ही पहुंचता है. आपका यात्रा विवरण झारखण्ड की रामनवमी में निकलने वाले procesion के समान है जिसपर फ़िर कभी अपने ब्लॉग पर चर्चा करूँगा. परदा नौला अनूठा लगा.

    ReplyDelete
  2. विनीता जी नमस्कार.
    मुझे तो रोजगार का जरिए बता दिया है आपने. अल्मोडा में हड्डी के डॉक्टर की दूकान खोलूँगा. किसी से कह सुन के दो चार जगह वे चिकने पत्थर और लगवा दूंगा. मेरी तो बल्ले बल्ले हो जायेगी. बढ़िया पैसे कमाऊंगा.
    फिर क्या करूंगा? एक होटल खोलूँगा. उसमे आने जाने वाले रुका करेंगे. फिर अपने बिजनेस को और बढाऊँगा.
    अरे!! अरे!! आह! मर गया. ये क्या हुआ? आह! कुर्सी का पाया टूट गया. आह! मेरी भी कमर की हड्डी टूट गयी. बढ़िया ख्वाब देखे.
    आगे का इन्तजार रहेगा.

    ReplyDelete
  3. बहुत लाजवाब जानकारी दी आपने अल्मोडा और वहां के दर्शनीय स्थलो और परंपराओं की. आपकी शैली मे लाजवाब प्रवाह होने की वजह से पढने मे बडा आनन्द आता है. शुभकामनाएं.

    @मुसाफ़िर जाट, जरा संभलके, सपने ठीक ठाक ही देख्या कर तू, घणे सपने देख कै हड्डी पसली ना तुडा बैठियो. :)

    रामराम.

    ReplyDelete
  4. ब्लॉगवानी में ढूंड ही रहा था. हमें आप देख लेते. प्रसन्नता चेहरे पर सॉफ झलक रही थी. हमारा स्टेशन जो आ गया, अल्मोड़ा. हमने सोचा था परदा नीला में पानी नीला होगा. बहुत ही सुंदर चित्रण. चित्र भी पूरी अनुभूति प्रदान करने में सक्षम. आभार

    ReplyDelete
  5. Bahut achha raha apke sath Almora ko itne achhe se ghumana.

    photo bahut achhe lagaye hai apne.

    ReplyDelete
  6. विनीता जी आपके इस वृत्तांत में तो अब मज़ा आने लगा है.....सच घूमना भी एक............बहुत बड़ा और गहरा अहसास है........!!

    ReplyDelete
  7. bahut acchi jaankaari de apne..ham to aapke shabdo ke dwara hi ghoom liye....

    ReplyDelete
  8. बहुत बढ़िया लगा यह सफर भी ...

    ReplyDelete
  9. आपके लेख से पुरानी यादें ताजा हो गईं. लेकिन कुछ नई जानकारियाँ मिलने से एक बार अल्मोड़ा जाने का मन कर रहा है. जैसे - आल्मोड़ा के बाजार में पटालों की जगह टायल्स का बिछ जाना और परदा नौला. हमने तो अपने समय में बाड़ी नौला देखा था जो उस समय पानी प्राप्त करने का एक स्रोत था.

    ReplyDelete
  10. Kafi kuchh nayikariya mili apke is yatra vritant se.....

    ReplyDelete
  11. जो नहीं देख पाये वह आपके सौजन्य से देखने और पढने को मिल रहा है

    ReplyDelete
  12. yatra vivran aur jankari shandar lagi.

    ReplyDelete
  13. रोचक एवं जानकारीपरक दास्‍तान, शुक्रिया।

    ReplyDelete
  14. vinita ji ,

    aap to bahut acchi acchi jagah ghoom aate ho ..
    muhe bhi shouk hai ghoomne ka , lekin aapne jo jaankari diya hai , wo kaabile tareef hai ..

    badhai.

    maine kuch nai nazme likhi hai ,dekhiyenga jarur.


    vijay
    Pls visit my blog for new poems:
    http://poemsofvijay.blogspot.com/

    ReplyDelete
  15. बचपन में मुझे बाईस्कोप देखना
    बहुत अच्छा लगता था,
    मुझे क्या मेरे हमउम्र के तकरीबन
    सभी बच्चों को ही अच्छा लगता था !
    वो छोटे से सुराख में कौतूहल से झांकना
    और फिर 15 मिनट में ही दुनिया भर
    की सैर कर लेना ...............!

    आपका यात्रा वृतांत भी मुझे उसी बाईस्कोप
    की याद दिलाता है !
    बस आपके ब्लॉग में झांको और निकल पडो
    सैर पर ! अब तो आदत पड़ गई है ! !

    आपकी घुमक्कड़ी हमारे आनंद और ज्ञान दोनों
    का सबब बनती जा रही है !

    इन्तजार है अगली पोस्ट का ....

    ReplyDelete
  16. बहुत बढ़िया,ले्ख के अगले हिस्से क इन्तेज़ार रहेगा

    ReplyDelete