युगमंच और जन संस्कृति मंच के मिलेजुले प्रयासों से नैनीताल में 30 अक्टूबर से 1 नवम्बर तक ‘प्रतिरोध का सिनेमा 3’ का आयोजन किया गया। इस बार का फिल्म महोत्सव प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक मणि कौल, क्रांतिकारी नाट्यकर्मी और जन संस्कृति मंच के संस्थापक अध्यक्ष गुरुशरण सिंह तथा प्रसिद्ध टीवी पत्रकार कवि कुबेरदत्त की याद में हुआ। पिछले तीन वर्षों से लगातार आयोजित किये जा रहे इस फिल्म महोत्सव का उद्देश्य जनता को इस तरह की फिल्में दिखाने का रहता है जिसे मेन स्ट्रीम सिनेमा में नहीं दिखाया जाता है। इसमें दिखायी जाने वाली तमाम फिल्में, डाॅक्यूमेंट्री या व्याख्यान किसी न किसी रूप में समाज के साथ जुड़े रहते हैं।
पहले दिन का सत्र उद्घाटन समारोह के साथ शुरू हुआ जिसमें अपने अध्यक्षीय संबोधन में सुप्रसिद्ध हिन्दी कवि-पत्रकार मंगलेश डबराल ने कहा कि आज के सिनेमा और प्राचीन समय में की जाने वाली कविताओं में एक समानता है कि दोनों ही बिम्बों द्वारा बनते हैं। उन्होंने कहा कि आज भूमंडलीकरण के दौर में इस तरह के आयोजनों की बहुत आवश्यकता है। इस दौरान एक स्मारिका का भी उद्घाटन किया गया। इसी सत्र में उड़ीसा के युवा चित्रकार प्रणव प्रकाश मोहंती के चित्रों की प्रदर्शनी का उद्घाटन भी किया गया। प्रणव अपने वित्रों को बाजार में बेचने से सख्त परहेज करते हैं और पूरी ईमानदारी के साथ अपनी कला के लिये समर्पित हैं। उद्घाटन सत्र में कुन्दन शाह निर्देशित फिल्म ‘जाने भी दो यारों’ का प्रदर्शन किया गया। 1983 में बनी यह फिल्म उस समय के पत्रकारों के चरित्र को सामने रखती है। हास्य अंदाज़ में कहे गये तीखे सटायर इस फिल्म को आज भी उतना ही जरूरी बनाते हैं जितनी की ये उस दशक में रही थी।
फेस्टिवल के दूसरे दिन की शुरूआत बच्चों के सत्र से हुई जिसमें रामा मोंटेसरी स्कूल नैनीताल के बच्चों द्वारा लोक गीतों पर आधारित नृत्यों से हुई जिसे दर्शकों और खास तौर पर बच्चों द्वारा काफी सराहा गया। इसके बाद आशुतोष उपाध्याय ने बच्चों को धरती के गर्भ की संरचना को कुछ आसान से प्रयोगों द्वारा खेल-खेल में ही समझा दिया। जिसे बच्चों ने बहुत पसंद किया। इसके बाद पंकज अडवानी निर्देशित बाल फिल्म ‘सण्डे’ का प्रदर्शन किया गया। इस सत्र की सबसे अच्छी बात यह रही कि इसमें ढेर सारे बच्चे दर्शक के रूप में मौजूद थे। कुछ बच्चों ने पेंटिंग भी बनाई। दूसरा सत्र लघु फिल्मों का था जिसमें लुईस फोक्स निर्देशित ‘द स्टोरी आॅफ स्टफ’, बर्ट हान्स्त्र निर्देशित ‘ग्लास’, ‘ज़ू’, अल्ताफ माजिद निर्देशित ‘भाल खबर’, राजीव कटियार निर्देशित ‘दुर्गा के शिल्पकार’, अभय कुलकर्णी निर्देशित ‘मेरे बिना’ के साथ पाकिस्तानी म्यूजिक वीडियो ‘लाल बेंड’ का प्रदर्शन किया गया। ‘द स्टोरी आॅफ स्टफ’ एक ऐसी डाॅक्यूमेंटीª है जिसमें आज के बाजारवाद की चालाकियों को बहुत गहराई से दिखाया गया है। ‘मेरे बिना’ फिल्म आत्महत्या विषय पर बनी है। जिसमें युगमंच से जुड़े ज्ञान प्रकाश मुख्य भूमिका में हैं।
तीसरे सत्र की शुरूआत प्रभात गंगोला के व्याख्यान व्याख्यान ‘भारतीय सिनेमा में बैक ग्राउंड स्कोर का सफर’ पर आधारित था। उन्होंने चित्रों और छोटी-छोटी वीडियो फिल्मों द्वारा भारत की पहली मूक फिल्म से लेकर पहली बोलती फिल्म और फिर वहां से आज तक के फिल्मों का सफर कराया और साथ ही कई तकनीकि बातों से आम लोगों को रूबरू भी कराया।
दूसरा व्याख्यान उड़ीसा सूर्य शंकर दास ने प्रस्तुत किया जो उड़ीसा में विकास की त्रासदी पर आधारित था। उन्होंने बताया कि किस तरह इन विडियो को रिकाॅर्ड करने में उनके एक साथी रघु को गोली भी लग गयी थी और शासन द्वारा उसे कई फर्जी केसों में उलझा दिया गया है। उन्होंने इन विडियो द्वारा पास्को, वेदांता जैसी कंपनियों की असलियत सबके सामने लाये कि कैसे वो उड़ीसा के नियामगिरी इलाके को बर्बाद करने पर तुले हैं। सूर्या बताते हैं कि उनकी इन खबरों को कोई भी मीडिया अपने चैनलों पर नहीं दिखाता है जिस कारण उन्होंने सारे विडियोस् यू ट्यूब पर डालने शुरू कर दिये। हालांकि इनमें कमेंट्स ज्यादा नहीं होते हैं पर जिस तरह इन विडियोस की व्यूवरशिप बढ़ रही है और लोगों की इंनडाइरेक्ट सर्पोट मिल रहा है उससे अच्छा लगता है।
तीसरा व्याख्यान इंद्रेश मैखुरी द्वारा उत्तराखंड में बड़े बांधों द्वारा विनाश के कुचक्र पर था। उन्होंने बताया कि विकास के नाम उत्तराखंड की सभी बड़ी नदियों पर 50 से ज्यादा बड़े बांध बनाये जा रहे हैं जिनमें मुख्य रूप से पैसे का खेल है।
तीसरे दिन के पहले सत्र की शुरूआत मणि कौल निर्देशित फिल्म ‘दुविधा’ से हुई। 60 के दशक में बनी यह फिल्म राजस्थानी पृष्ठभूमि पर आधारित है। इस फिल्म की फोटोग्राफी ने दर्शकों को काफी प्रभावित किया। दूसरा सत्र महिला फिल्मकारों का था जिसमें निलिता वाच्छानी निर्देशित सब्जी मंडी के हीरे, रीना मोहन निर्देशित कमलाबाई, फै़ज़ा अहमद खान निर्देशित ‘सुपरमैन आॅफ मालेगांव’ और इफ्फत फातिमा निर्देशित ‘व्हेयर हैव यू हिडन माई न्यू किस्रेंट मून ?’ दिखायी गयी। ‘सब्जी मंडी के हीरे’ बसों में जाकर सामान बेचने वालों की कहानी है। इन लोगों को पता होता है कि इनका सामान कोई नहीं लेगा पर फिर भी अपनी पूरी मेहनत और कला का प्रदर्शन कर कुछ न कुछ सामान बेच ही लेते हैं। इनमें से कुछ ऐसे भी होते हैं जिनका सपना होता है मुम्बई जाकर हीरो बनने का पर वो ऐसा कर नहीं सके। ‘कमलाबाई’ प्रथम मूक फिल्म और मराठी नाट्य मंच की अभिनेत्री कमला बाई के जीवन पर आधारित है। इस फिल्म द्वारा रीना मोहन ने शुरूआती दौर के सिनेमा में कमलाबाई के महत्व को तो दिखाया ही था पर उनके अनुभवों को और उनकी निजी जिन्दगी से भी लोगों को रुबरु कराया।
‘मालेगांव का सुपरमैन’ मालेगांव नाम के छोटे से कस्बे में रहने वाले फिल्म निर्माण के शौकीन एक ग्रुप की कहानी है। ये सुपरहिट फिल्मों की पैरोडी बनाते हैं जो उनके लिये धार्मिक तनावों और आर्थिक कठिनाइयों से भागने का मजेदार रास्ता है। यह फिल्म सुपरमैन की शूटिंग की तैयारियों पर केन्द्रित है। अपने सीमित संसाधनों के चलते ये लोग किस तरह से अपने देशी जुगाड़ को आधुनिक तकनीक से जोड़ते हैं और उससे जो व्यंग्य निकलता है वो इस फिल्म को बेहतरीन फिल्म की श्रेणी में डाल देता है। इस फिल्म के बाद दिखायी गयी फिल्म सन 2009 में ‘आधी विधवाऐं’ नाम से चल रहे अभियान के अंतर्गत कश्मीर में लापता लोगों के अभिभावकों के संगठन (।च्क्च्) के सहयोग से बनाई गयी। यह ऐसी औरतों की कहानी है जिनके घरवाले आज तक लापता हैं। इनमें अधिकांश लापता होने के लिये बाध्य पीडि़तों की मांयें और बीवियां हैं। ‘आधी विधवाएं’ अभियान की शुरूआत 2006 में हुई। यह फिल्म वादों, हिंसा और जख्मों के भरने जैसे मुद्दों को सामने लाती है। मुगलमासी कश्मीर के श्रीनगर जिले के हब्पाकदल नाम की जगह पर रहती थी। पहली सितम्बर 1990 को उनका इकलौता बेटा नाजिर अहमद तेली लापता हो गया और फिर कभी नहीं मिला। वह अध्यापक था।
तीसरे सत्र की शुरूआत अपल के व्याख्यान ‘नदियों के साथ’ से हुई। इसमें अपल ने अफ्रीका की जाम्बेजी से लेकर भारत की ब्रह्मपुत्र, गंगा और गोमती की रोमांचक यात्रा करायी और इनकी बदलती स्थितियों पर ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने लोगों का ध्यान इस ओर भी आकर्षित किया कि किस तरह से नदियों के किनारे पल रही सभ्यता अब धीरे-धीरे बर्बाद होने लगी है। इस सत्र का अंतिम व्याख्यान सुप्रसिद्ध ब्राॅडकास्टर के. नन्दकुमार का था। जिन्होंने ब्राडकास्टिंग की दुनिया में कैमरे और अन्य उपकरणों के विकास को उन्होंने कई छोटी-छोटी विडियो फिल्मों के माध्यम से समझाया।
फैस्टिवल की अंतिम प्रस्तुति क्रांतिकारी धारा के कवि रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ जी पर बनी इमरान द्वारा निर्देशित फिल्म ‘मैं तुम्हारा कवि हूं’ थी। इस वृत्त चित्र ने विद्रोही जी के व्यक्तित्व को उभार कर सामने ला दिया। विद्रोही जी अपनी अनोखी शैली और अद्भूद काव्य क्षमता के कारण लोगों के बीच में पहचाने जाते हैं। साधारण से दिखने वाले इस कवि ने जब अपना काव्य पाठ शुरू किया तो पूरा हाॅल वाह-वाह और तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज गया। हाॅल में उपस्थित युवा और बुजुर्ग सबने जमकर विद्रोही जी की तारीफ की। विद्रोही जी के इस अद्भुद काव्य पाठ के साथ ही यह नैनीताल के तीसरे फिल्म उत्सव का समापन हो गया।
पहले दिन का सत्र उद्घाटन समारोह के साथ शुरू हुआ जिसमें अपने अध्यक्षीय संबोधन में सुप्रसिद्ध हिन्दी कवि-पत्रकार मंगलेश डबराल ने कहा कि आज के सिनेमा और प्राचीन समय में की जाने वाली कविताओं में एक समानता है कि दोनों ही बिम्बों द्वारा बनते हैं। उन्होंने कहा कि आज भूमंडलीकरण के दौर में इस तरह के आयोजनों की बहुत आवश्यकता है। इस दौरान एक स्मारिका का भी उद्घाटन किया गया। इसी सत्र में उड़ीसा के युवा चित्रकार प्रणव प्रकाश मोहंती के चित्रों की प्रदर्शनी का उद्घाटन भी किया गया। प्रणव अपने वित्रों को बाजार में बेचने से सख्त परहेज करते हैं और पूरी ईमानदारी के साथ अपनी कला के लिये समर्पित हैं। उद्घाटन सत्र में कुन्दन शाह निर्देशित फिल्म ‘जाने भी दो यारों’ का प्रदर्शन किया गया। 1983 में बनी यह फिल्म उस समय के पत्रकारों के चरित्र को सामने रखती है। हास्य अंदाज़ में कहे गये तीखे सटायर इस फिल्म को आज भी उतना ही जरूरी बनाते हैं जितनी की ये उस दशक में रही थी।
फेस्टिवल के दूसरे दिन की शुरूआत बच्चों के सत्र से हुई जिसमें रामा मोंटेसरी स्कूल नैनीताल के बच्चों द्वारा लोक गीतों पर आधारित नृत्यों से हुई जिसे दर्शकों और खास तौर पर बच्चों द्वारा काफी सराहा गया। इसके बाद आशुतोष उपाध्याय ने बच्चों को धरती के गर्भ की संरचना को कुछ आसान से प्रयोगों द्वारा खेल-खेल में ही समझा दिया। जिसे बच्चों ने बहुत पसंद किया। इसके बाद पंकज अडवानी निर्देशित बाल फिल्म ‘सण्डे’ का प्रदर्शन किया गया। इस सत्र की सबसे अच्छी बात यह रही कि इसमें ढेर सारे बच्चे दर्शक के रूप में मौजूद थे। कुछ बच्चों ने पेंटिंग भी बनाई। दूसरा सत्र लघु फिल्मों का था जिसमें लुईस फोक्स निर्देशित ‘द स्टोरी आॅफ स्टफ’, बर्ट हान्स्त्र निर्देशित ‘ग्लास’, ‘ज़ू’, अल्ताफ माजिद निर्देशित ‘भाल खबर’, राजीव कटियार निर्देशित ‘दुर्गा के शिल्पकार’, अभय कुलकर्णी निर्देशित ‘मेरे बिना’ के साथ पाकिस्तानी म्यूजिक वीडियो ‘लाल बेंड’ का प्रदर्शन किया गया। ‘द स्टोरी आॅफ स्टफ’ एक ऐसी डाॅक्यूमेंटीª है जिसमें आज के बाजारवाद की चालाकियों को बहुत गहराई से दिखाया गया है। ‘मेरे बिना’ फिल्म आत्महत्या विषय पर बनी है। जिसमें युगमंच से जुड़े ज्ञान प्रकाश मुख्य भूमिका में हैं।
तीसरे सत्र की शुरूआत प्रभात गंगोला के व्याख्यान व्याख्यान ‘भारतीय सिनेमा में बैक ग्राउंड स्कोर का सफर’ पर आधारित था। उन्होंने चित्रों और छोटी-छोटी वीडियो फिल्मों द्वारा भारत की पहली मूक फिल्म से लेकर पहली बोलती फिल्म और फिर वहां से आज तक के फिल्मों का सफर कराया और साथ ही कई तकनीकि बातों से आम लोगों को रूबरू भी कराया।
दूसरा व्याख्यान उड़ीसा सूर्य शंकर दास ने प्रस्तुत किया जो उड़ीसा में विकास की त्रासदी पर आधारित था। उन्होंने बताया कि किस तरह इन विडियो को रिकाॅर्ड करने में उनके एक साथी रघु को गोली भी लग गयी थी और शासन द्वारा उसे कई फर्जी केसों में उलझा दिया गया है। उन्होंने इन विडियो द्वारा पास्को, वेदांता जैसी कंपनियों की असलियत सबके सामने लाये कि कैसे वो उड़ीसा के नियामगिरी इलाके को बर्बाद करने पर तुले हैं। सूर्या बताते हैं कि उनकी इन खबरों को कोई भी मीडिया अपने चैनलों पर नहीं दिखाता है जिस कारण उन्होंने सारे विडियोस् यू ट्यूब पर डालने शुरू कर दिये। हालांकि इनमें कमेंट्स ज्यादा नहीं होते हैं पर जिस तरह इन विडियोस की व्यूवरशिप बढ़ रही है और लोगों की इंनडाइरेक्ट सर्पोट मिल रहा है उससे अच्छा लगता है।
तीसरा व्याख्यान इंद्रेश मैखुरी द्वारा उत्तराखंड में बड़े बांधों द्वारा विनाश के कुचक्र पर था। उन्होंने बताया कि विकास के नाम उत्तराखंड की सभी बड़ी नदियों पर 50 से ज्यादा बड़े बांध बनाये जा रहे हैं जिनमें मुख्य रूप से पैसे का खेल है।
तीसरे दिन के पहले सत्र की शुरूआत मणि कौल निर्देशित फिल्म ‘दुविधा’ से हुई। 60 के दशक में बनी यह फिल्म राजस्थानी पृष्ठभूमि पर आधारित है। इस फिल्म की फोटोग्राफी ने दर्शकों को काफी प्रभावित किया। दूसरा सत्र महिला फिल्मकारों का था जिसमें निलिता वाच्छानी निर्देशित सब्जी मंडी के हीरे, रीना मोहन निर्देशित कमलाबाई, फै़ज़ा अहमद खान निर्देशित ‘सुपरमैन आॅफ मालेगांव’ और इफ्फत फातिमा निर्देशित ‘व्हेयर हैव यू हिडन माई न्यू किस्रेंट मून ?’ दिखायी गयी। ‘सब्जी मंडी के हीरे’ बसों में जाकर सामान बेचने वालों की कहानी है। इन लोगों को पता होता है कि इनका सामान कोई नहीं लेगा पर फिर भी अपनी पूरी मेहनत और कला का प्रदर्शन कर कुछ न कुछ सामान बेच ही लेते हैं। इनमें से कुछ ऐसे भी होते हैं जिनका सपना होता है मुम्बई जाकर हीरो बनने का पर वो ऐसा कर नहीं सके। ‘कमलाबाई’ प्रथम मूक फिल्म और मराठी नाट्य मंच की अभिनेत्री कमला बाई के जीवन पर आधारित है। इस फिल्म द्वारा रीना मोहन ने शुरूआती दौर के सिनेमा में कमलाबाई के महत्व को तो दिखाया ही था पर उनके अनुभवों को और उनकी निजी जिन्दगी से भी लोगों को रुबरु कराया।
‘मालेगांव का सुपरमैन’ मालेगांव नाम के छोटे से कस्बे में रहने वाले फिल्म निर्माण के शौकीन एक ग्रुप की कहानी है। ये सुपरहिट फिल्मों की पैरोडी बनाते हैं जो उनके लिये धार्मिक तनावों और आर्थिक कठिनाइयों से भागने का मजेदार रास्ता है। यह फिल्म सुपरमैन की शूटिंग की तैयारियों पर केन्द्रित है। अपने सीमित संसाधनों के चलते ये लोग किस तरह से अपने देशी जुगाड़ को आधुनिक तकनीक से जोड़ते हैं और उससे जो व्यंग्य निकलता है वो इस फिल्म को बेहतरीन फिल्म की श्रेणी में डाल देता है। इस फिल्म के बाद दिखायी गयी फिल्म सन 2009 में ‘आधी विधवाऐं’ नाम से चल रहे अभियान के अंतर्गत कश्मीर में लापता लोगों के अभिभावकों के संगठन (।च्क्च्) के सहयोग से बनाई गयी। यह ऐसी औरतों की कहानी है जिनके घरवाले आज तक लापता हैं। इनमें अधिकांश लापता होने के लिये बाध्य पीडि़तों की मांयें और बीवियां हैं। ‘आधी विधवाएं’ अभियान की शुरूआत 2006 में हुई। यह फिल्म वादों, हिंसा और जख्मों के भरने जैसे मुद्दों को सामने लाती है। मुगलमासी कश्मीर के श्रीनगर जिले के हब्पाकदल नाम की जगह पर रहती थी। पहली सितम्बर 1990 को उनका इकलौता बेटा नाजिर अहमद तेली लापता हो गया और फिर कभी नहीं मिला। वह अध्यापक था।
तीसरे सत्र की शुरूआत अपल के व्याख्यान ‘नदियों के साथ’ से हुई। इसमें अपल ने अफ्रीका की जाम्बेजी से लेकर भारत की ब्रह्मपुत्र, गंगा और गोमती की रोमांचक यात्रा करायी और इनकी बदलती स्थितियों पर ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने लोगों का ध्यान इस ओर भी आकर्षित किया कि किस तरह से नदियों के किनारे पल रही सभ्यता अब धीरे-धीरे बर्बाद होने लगी है। इस सत्र का अंतिम व्याख्यान सुप्रसिद्ध ब्राॅडकास्टर के. नन्दकुमार का था। जिन्होंने ब्राडकास्टिंग की दुनिया में कैमरे और अन्य उपकरणों के विकास को उन्होंने कई छोटी-छोटी विडियो फिल्मों के माध्यम से समझाया।
फैस्टिवल की अंतिम प्रस्तुति क्रांतिकारी धारा के कवि रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ जी पर बनी इमरान द्वारा निर्देशित फिल्म ‘मैं तुम्हारा कवि हूं’ थी। इस वृत्त चित्र ने विद्रोही जी के व्यक्तित्व को उभार कर सामने ला दिया। विद्रोही जी अपनी अनोखी शैली और अद्भूद काव्य क्षमता के कारण लोगों के बीच में पहचाने जाते हैं। साधारण से दिखने वाले इस कवि ने जब अपना काव्य पाठ शुरू किया तो पूरा हाॅल वाह-वाह और तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज गया। हाॅल में उपस्थित युवा और बुजुर्ग सबने जमकर विद्रोही जी की तारीफ की। विद्रोही जी के इस अद्भुद काव्य पाठ के साथ ही यह नैनीताल के तीसरे फिल्म उत्सव का समापन हो गया।
6 comments:
शुक्रिया इस जानकारी के लिए ! पर ट्रेकिंग के अनुभव पर आपकी पोस्ट नहीं दिखी।
अब तो आपका शहर देख लिया । वापस गया तो एक किताब पढ़ी और उसके बारे में लिखा.. सोचा आपसे शेयर करूँ आपके शहर से जुड़े इस उपन्यास को तुम्हारे लिए : नैनीताल की ज़मीं पर पनपी तरुणों की सुकोमल स्नेह-गाथा !
बहुत सुंदर, ललचाहट भरी जानकारी...अफ़सोस हम वहाँ न हुए । वैसे यहाँ भी अभी अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्मोत्सव था और उस पर कार्यक्रम भी प्रसारित किए मग़र बिना वहाँ गए ः)
कोई फ़ोटो नहीं !
Manish : jaldi hi post bhi likhungi...ajkal thora buzy ho gayi hu...Nainital ke apke experience kaise rahe ???
Munish : next time ke liye apko abi se hi invitation de diya hai...
Kajal ji : is baar mai pics le hi nahi payi...
ये शहर व आसपास का क्षेत्र भी देखा था।
बहुत सुंदर पोस्ट
पहली बार पढ़ रहा हूँ आपको और भविष्य में भी पढना चाहूँगा सो आपका फालोवर बन रहा हूँ ! शुभकामनायें
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